कहानी संग्रह >> प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह) प्रेम पूर्णिमा (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मनुष्य की प्रवृत्ति और समय के साथ बदलती नीयत का बखान करती 15 कहानियाँ
बहुत सोचने-विचारने पर भी मुंशीजी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का विश्वास न हो सका। हाँ, इससे सुगम एक दूसरी तदबीर नजर आई–क्यों न दफ्तर में आग लगा दूँ? एक बोतल मिट्टी का तेल और एक दियासलाई की जरूरत है! किसी बदमाश को मिला लूँ। मगर यह क्या मालूम कि वह वहीं कमरे में रखी है या नहीं। चुड़ैल ने उसे जरूर अपने पास रख ली होगी। नहीं, आग लगाना गुनाह बेलज्जत होगा।
बहुत देर तक मुंशी जी करवटे बदलते रहे। नए-नए मनसूबे सोचते पर, फिर अपने ही तर्कों से उन्हें काट देते। जैसे वर्षाकाल में बादलों को नई-नई सूरतें बनतीं और फिर हवा के वेग से बिगड़ जाती हैं, वही दशा उस समय उनके मनसूबों की हो रही थी।
पर इस मानसिक अशांति में भी एक विचार पूर्णरूप से स्थित था–किसी तरह इन कागजातों को अपने हाथ में लाना चाहिए। काम कठिन है–माना; पर हिम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या ३॰ हजार की जायदाद दाल-भात का कौर है? चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियां करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते हैं। बस एक छलांग का काम है। अगर पार हो गए तो राज करेंगे, गिर पड़े तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।
रात के दस बज गए थे। मुंशी सत्यनारायण कुंजियों का एक गुच्छा कमर में दबाएं घर से बाहर निकले। द्वार पर थोड़ा-सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पड़े। मारे डर के छाती धड़कने लगी। जान पड़ा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गए। पुआल की तरफ ध्यान से देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई। तब हिम्मत बँधी। आगे बढ़े और मन को समझाने लगे–मैं कैसा बौखल हूं। अपने द्वार पर किसका डर? और सड़क पर भी मुझे किसका डर है? मैं अपनी राह जाता हूँ। कोई मेरी तरफ तिरछी आँखों से नहीं देख सकता है। हाँ, जब मुझे सेंध लगाते देख ले–वहीं पकड़ ले–तब अलबत्ते डरने की बात है! तिस पर भी बचाव की युक्ति निकल सकती है।
अकस्मात् उन्होंने भानुकुँवरि के एक चपरासी को आते हुए देखा। कलेजा धड़क उठा। लपककर एक अँधेरी गली में घुँस गये। बड़ी देर तक वहाँ खड़े रहे। जब वह सिपाही आँखों से ओझल हो गया, तब फिर सड़क पर आये। वह सिपाही आज सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने कितनी बार गालियाँ दी थीं, लातें भी मारी थीं। पर अभी उसे देखकर उनके प्राण सूख गए।
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