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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


प्रभु सेवक ने पूछा–सोफ़ी, तुम कहां जा रही हो? जूते तक नहीं, केवल स्लीपर पहने हो !

सोफ़िया पर घड़ों पानी पड़ गया–आह ! मैं इस वेश में कहां चली आई ! मुझे सुधि ही न रही। लजाती हुई बोली–कहीं तो नहीं !

प्रभु सेवक–क्या इन लोगों के साथ स्टेशन तक जाओगी? आओ, गाड़ी पर बैठ जाओ। मैं भी वहीं चलता हूं। मुझे तो अभी-अभी मालूम हुआ कि ये लोग जा रहे हैं, जल्दी से गाड़ी तैयार करके आ पहुंचा, नहीं तो मुलाकात भी न होती।

सोफ़ी–मैं इतनी दूर निकल आई, और जरा भी ख़्याल न किया कि कहां जा रही हूं।

प्रभु सेवक–आकर बैठ न जाओ। इतनी दूर आई हो, तो स्टेशन तक और चली जाओ।

सोफ़ी–मैं स्टेशन न जाऊंगी। यहीं से लौट जाऊंगी।

प्रभु सेवक–मैं स्टेशन से लौटता हुआ आऊंगा। आज तुम्हें मेरे साथ घर चलना होगा।

सोफ़ी–मैं वहां न जाऊंगी।

प्रभु सेवक–बड़े पापा नाराज होंगे। आज उन्होंने तुम्हें बहुत आग्रह करके बुलाया है।

सोफ़ी–जब तक मामा मुझे खुद आकर न ले जाएंगी, उस घर में कदम न रखूंगी। यह कहकर सोफ़ी लौट पड़ी, और प्रभु सेवक स्टेशन की तरफ चल दिए। स्टेशन पहुंचकर विनय ने चारों तरफ आंखें फाड़-फाड़कर देखा, सोफ़ी न थी।

प्रभु सेवक ने उसके कान में कहा–धर्मशाले तक यों ही रात के कपड़े पहने चली आई थी, वहां से लौट गई। जाकर खत जरूर लिखिएगा, वरना वह राजपूताने जा पहुंचेगी।

विनय ने गद्गद् कंठ से कहा–केवल देह लेकर जा रहा हूं, हृदय यही छोड़े जाता हूं।

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