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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


थोड़ी देर में फिटन कुंवर साहब के मकान पर पहुंच गई। कुंवर साहब ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। मिसेज सेवक ने मन में सोचा था, मैं सोफ़िया से एक शब्द भी न बोलूंगी, दूर से खड़ी देखती रहूंगी। लेकिन जब सोफ़िया के कमरे में पहुंची और उसका मुरझाया हुआ चेहरा देखा, तो शोक से कलेजा मसोस उठा। मातृ-स्नेह उबल पड़ा। अधीर होकर उससे लिपट गईं। आंखों से आंसू बहने लगे। इस प्रवाह में सोफ़िया का मनोमालिन्य बह गया। उसने दोनों हाथ माता की गर्दन में डाल दिए, और कई मिनट तक दोनों प्रेम का स्वर्गीय आनंद उठाती रहीं। जॉन सेवक ने सोफ़िया का माथा चूमा; किंतु प्रभु सेवक आंखों में आंसू-भरे उसके सामने खड़ा रहा। आलिंगन करते हुए उसे भय होता था कि कहीं हृदय फट न जाए। ऐसे अवसरों पर उसके भाव और भाषा, दोनों ही शिथिल हो जाते थे।

जब जॉन सेवक सोफ़ी को देखकर कुंवर साहब के साथ बाहर चले गए, तो मिसेज सेवक बोलीं–तुझे उस दिन क्या सूझी कि यहां चली आई? यहां अजनबियों में पड़े-पड़े तेरी तबीयत घबराती रही होगी। ये लोग अपने धन के घमंड में तेरी बात भी न पूछते होंगे।

सोफ़िया–नहीं मामा, यह बात नहीं है। घमंड तो यहां किसी में छू भी नहीं गया है। सभी सहृदयता और विनय के पुतले हैं। यहां तक कि नौकर-चाकर भी इशारों पर काम करते हैं। मुझे आज चौथे दिन होश आया है। पर इन लोगों ने इतने प्रेम से सेवा-सुश्रूषा न की होती, तो शायद मुझे हफ़्तों बिस्तर पर पड़े रहना पड़ता। मैं अपने घर में भी ज्यादा-से-ज्यादा इतने ही आराम से रहती।

मिसेज सेवक–तुमने अपनी जान जोखिम में डाली थी, तो क्या ये लोग इतना भी करने से रहे?

सोफ़िया–नहीं मामा, ये लोग अत्यंत सुशील और सज्जन हैं। खुद रानीजी प्रायः मेरे पास बैठी पंखा झलती रहती हैं। कुंवर साहब दिन में कई बार आकर देख जाते हैं, और इंदु से तो मेरा बहनापा-सा हो गया है। यही लड़की है, जो मेरे साथ नैनीताल में पढ़ा करती थी।

मिसेज सेवक–(चिढ़कर) तुझे दूसरों में सब गुण-ही-गुण नजर आते हैं। अवगुण सब घरवालों ही के हिस्से में पड़े हैं। यहां तक कि दूसरे धर्म भी अपने धर्म से अच्छे हैं।

प्रभु सेवक–मामा, आप तो जरा-जरा-सी बात पर तिनक उठती हैं। अगर कोई अपने साथ अच्छा बरताव करे, तो क्या उसका एहसान न माना जाए? कृतघ्नता से बुरा कोई दूषण नहीं है।

मिसेज सेवक–यह कोई आज नई बात थोड़े ही है। घरवालों की निंदा तो इसकी आदत हो गई है। यह मुझे जताना चाहती है कि ये लोग इसके साथ मुझसे ज्यादा प्रेम करते हैं। देखूं यहां से जाती है, तो कौन-सा तोहफा दे देते हैं। कहां हैं तेरी रानी साहिबा? मैं भी उन्हें धन्यवाद दे दूं। उनसे आज्ञा ले लो और घर चलो। पापा अकेले घबरा रहे होंगे।

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