सदाबहार >> रंगभूमि (उपन्यास) रंगभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है
यह कहकर उन्होंने कुंवर साहब को गर्वपूर्ण नेत्रों से देखा। कुंवर साहब की शंकाएं बहुत कुछ निवृत्त हो चुकी थीं। प्रायः वादी को निरुत्तर होते देखकर हम दिलेर हो जाते हैं। बच्चा भी भागते हुए कुत्ते पर निर्भय होकर पत्थर फेंकता है।
जॉन सेवक निःशंक होकर बोले–मैंने इन सब पहलुओं पर विचार करके ही यह मत स्थिर किया, और आपके इस दास को (प्रभु सेवक की ओर इशारा करके) इस व्यवसाय का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा। मेरी कंपनी के अधिकांश हिस्से बिक चुके हैं, पर अभी रुपए नहीं वसूल हुए। इस प्रांत में अभी सम्मलित व्यवसाय करने का दस्तूर नहीं। लोगों में विश्वास नहीं। इसलिए मैंने दस प्रति सैकड़े वसूल करके काम शुरू कर देने का निश्चय किया है। साल-दो-साल में जब आशातीत सफलता होगी और वार्षिक लाभ होने लगेगा, तो पूंजी आप-ही-आप दौड़ी आएगी। छत पर बैठा हुआ कबूतर ‘आ-आ’ की आवाज सुनकर सशंक हो जाता है और जमीन पर नहीं उतरता; पर थोड़ा-सा दाना बिखेर दीजिए, तो तुरंत उतर आता है। मुझे पूरा विश्वास है कि पहले ही साल हमें २५ प्रति सैकड़े लाभ होगा। यह प्रास्पेक्टस है, इसे गौर से देखिए। मैंने लाभ का अनुमान करने में बड़ी सावधानी से काम लिया है; बढ़ भले ही जाए। कम नहीं हो सकता।
कुंवर साहब–पहले ही साल २५ प्रति सैकड़े?
जॉन सेवक–जी हां, बड़ी आसानी से। आपसे मैं हिस्से लेने के लिए विनय करता, पर जब तक एक साल का लाभ दिखा न दूं, आग्रह नहीं कर सकता। हां इतना अवश्य निवेदन करूंगा कि उस दशा में संभव है, हिस्से बराबर पर न मिल सकें। १०० रुपए के हिस्से शायद २०० रुपए पर मिलें।
कुंवर साहब–मुझे अब एक ही शंका और है। यदि इस व्यवसाय में इतना लाभ हो सकता है, तो अब तक ऐसी और कंपनियां क्यों न खुलीं?
जॉन सेवक–(हंसकर) इसलिए कि अभी तक शिक्षित समाज में व्यवसाय-बुद्धि पैदा नहीं हुई। लोगों की नस-नस में गुलामी समाई हुई है। कानून और सरकारी नौकर के सिवा और किसी ओर निगाह जाती ही नहीं। दो-चार कंपनियां खुलीं भी, किंतु उन्हें विशेषज्ञों के परामर्श और अनुभव से लाभ उठाने का अवसर न मिला। अगर मिला भी, तो बड़ा महंगा पड़ा ! मशीनरी मंगाने में एक के दो देने पड़े, प्रबंध अच्छा न हो सका। विवश होकर कंपनियों का कारबार बंदर करना पड़ा। यहां प्रायः सभी कंपनियों का यही हाल है। डाइरेक्टरों की थैलियां भरी जाती हैं, हिस्से बेचने और विज्ञापन देने में लाखों रुपए उड़ा दिए जाते हैं, बड़ी उदारता से दलालों का आदर-सत्कार किया जाता है, इमारतों में पूंजी का बड़ा भाग खर्च कर दिया जाता है। मैनेजर भी बहु-वेतन-भोगी रखा जाता है। परिणाम क्या होता है? डाइरेक्टर अपनी जेभ भरते हैं, मैनेजर अपना पुरस्कार भोगता है, दलाल अपनी दलाली लेता है; मतलब यह कि सारी पूंजी ऊपर-ही-ऊपर उड़ जाती है। मेरा सिद्धांत है, कम-से-कम खर्च और ज्यादा-से-ज्यादा नफा। मैंने एक कौड़ी दलाली नहीं दी, विज्ञापनों की मद उड़ा दी। यहां तक कि मैनेजर के लिए भी केवल ५०० रुपए ही वेतन देना निश्चित किया है, हालांकि किसी दूसरे कारखाने में एक हजार सहज ही में मिल जाते। उस पर घर का आदमी। डाइरेक्टर के बारे में भी मेरा यही निश्चय है कि सफर-खर्च के सिवा और कुछ न दिया जाए।
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