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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


फत्तू– तो बहू-बेटियों को भेजने की सलाह मैं न दूंगा।

हलधर– वहां इनका कौन खटका है?

फत्तू– तुम क्या जानो, सिपाही है, चपरासी हैं, क्या वहां सब-के-सब देवता ही बैठे हैं। पहले की बात दूसरी थी।

एक किसान– हां यह बात ठीक है। मैं तो अम्मा को भेज दूंगा।

हलधर– मैं कहां से अम्मां लाऊं?

फत्तू– गाँव में जितने घर हैं क्या उतनी बुढ़ियां न होंगी। गिनो एक-दो तीन, राजा की मा मां चार उस टोले में पाँच पच्छिम ओर सात, मेरी तरफ नौ कुल पच्चीस बुढियां हैं।

हलधर– घर कितने होंगे?

फत्तू– घर तो अबकी मरदुमसुमारी में ३० थे। कह दिया जायेगा, पाँच घरों में कोई औरत ही नहीं है, हुकुम हो तो मर्द ही हाजिर हों।

हलधर– मेरी ओर से कौन बुढ़िया जायेगी?

फत्तू– सलोनी काकी को भेज दो। लो वह आप ही आ गयी।

(सलोनी आती है।)

फत्तू– अर सलोनी काकी, तुझे जमींदार की दलहाई में जाना पड़ेगा।

सलोनी– जाय नौज, जमींदार के मुँह में लूका लगे, मैं उसका क्या चाहती हूं कि बेगार लेगा। एक धुर जमीन भी तो नहीं है। और बेगार तो उसने बन्द कर दी थी?

फत्तू– जाना पड़ेगा। उसके गाँव में रहती हो कि नहीं?

सलोनी– गाँव उसके पुरखों का नहीं है, हाँ नहीं तो। फतुआ, मुझे चिढ़ा मत, नहीं कुछ कह बैठूँगी।

फत्तू– जैसे गा-गा कर चक्की पीसती हो उसी तरह गा-गा कर दाल दलना। बता कौन गीत गाओगी?

सलोनी– डाढ़ीजार, मुझे चिढ़ा मत, नहीं गाली दे दूँगी। गोद का खेला लौंड़ा मुझे चिढ़ाता है।

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