नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
फत्तू– हलधर तो आज दो दिन से घर ही नहीं आया।
दूसरा किसान– उसकी घरवाली से पूछा, कहीं नातेदारी में तो नहीं गया?
फत्तू– वह तो कहती है कि कल सवेरे खांचा लेकर आम तोड़ने गये थे। तब से लौट कर नहीं आये।
[सब– के-सब हलधर के द्वार पर आकर जमा हो जाते हैं। सलोनी और फत्तू घर में जाते हैं।]
सलोनी– बेटी, तूने उसे कुछ कहा– सुना तो नहीं। उसे बात बहुत लगती है, लड़कपन से जानती हूं। गुड़ के लिए रोये, लेकिन मां झमक कर गुड़ सामने फेंक दे तो कभी न उठाये। जब वह गोद में प्यार से बैठा कर गुड़ तोड़-तोड़ खिलाये तभी चुप हो।
फत्तू– यह बिचारी गऊ है, कुछ नहीं कहती-सुनती।
सलोनी– जरूर कोई न कोई बात हुई होगी, नहीं तो घर क्यों न आता। इसने गहनों के लिए ताना दिया होगा, चाहे महीन साड़ी मांगी हो। भले घर की बेटी है न, इसे महीन साड़ी अच्छी लगती है।
राजेश्वरी– काकी, क्या मैं ऐसी निकम्मी हूं कि देश में जिस बात की मनाही है वही करूंगी।
[फत्तू बाहर आता है।]
मंगरू– मेरे जान में तो उसे थाने वाले पकड़ ले गये।
फत्तू– ऐसा कुमारगी तो नहीं है कि थानेवालों की आंख पर चढ़ जाये।
हरदास– थानेवालों की भली कहते हो। राह चलते लोगों को पकड़ा करते हैं। आम लिये देखा होगा, कहा होगा, चल थाने पहुंचा आ।
मंगरू– किसी के रुपये-पैसे तो नहीं आते थे।
फत्तू– और किसी के तो नहीं, ठाकुर कंचनसिंह के २०० रु. आते है।
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