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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


मंगरू– कहीं उन्होंने गिरफ्तार करा लिया हो।

फत्तू– सम्मन तक तो आया नहीं, नालिस कब हुई, डिग्री कब हुई। औरों पर नालिस हुई तो सम्मन आया, पेशी हुई, तजबीज सुनाई गयी।

हरदास– बड़े आदमियों के हाथ में सब कुछ है, जो चाहें करा दे। राज उन्हीं का है, नहीं तो भला कोई बात है कि सौ-पचास रुपये के लिए आदमी गिरफ्तार कर लिया जाये, बाल बच्चों से अलग कर दिया जाये, उसका सब खेती-बारी का काम रोक दिया जाये।

मंगरू– आदमी चोरी या और कोई कुन्याव करता है तब उसे कैद की सजा मिलती है। यहां महाजन बेकसूर हमें थोड़े से रूपयों के लिए जेल भेज सकता है। यह कोई न्याय थोड़े ही है।

हरदास– सरकार न जाने ऐसे कानून क्यों बनाती है। महाजन के रुपये जाते हैं, जायदाद से ले, गिरफ्तार क्यों करे।

मंगरू– कहीं डमरा टापूवाले न बहका ले गये हों।

फत्तू– ऐसा भोला नहीं है कि उनकी बातों में आ जाये।

मंगरू– कोई जान-बूझ कर उनकी बातों में थोड़े ही आता है। सब ऐसी ऐसी पट्टी पढ़ाते हैं कि अच्छे-अच्छे धोखे में आ जाते हैं। कहते हैं, ना तलब मिलेगा, रहने को बंगला मिलेगा, खाने को वह मिलेगा जो यहां रईसों को भी नसीब नहीं, ‘पहनने को रेशमी कपड़े मिलेंगे, और काम कुछ नहीं, बस खेत में जाकर ठंडे-ठंड़े देख-भाल आये।

फत्तू– हां, यह तो सच है। ऐसी-ऐसी बातें सुनकर वह आदमी क्यों न धोखे में आ जाये जिसे कभी पेट-भर भोजन न मिलता हो। घास-भूसे से पेट भर लेना कोई खाना है। किसान पहर रात से पहर रात तक छाती फाड़ता है तब भी रोटी कपड़े को पूरा नहीं होता, उस पर की महाजन का डर, कहीं जमींदारी की धौंस, कहीं पुलिस की डांट-डपट, कहीं अमलों को नजर-भेंट, कहीं हाकिमों की रसद बेगार। सुना है जो लोग टापू में भरती हो जाते हैं उनकी बड़ी दुर्गत होती है। झोपड़ी रहने को मिलती है और रात-दिन काम करना पड़ता है। जरा भी देर हुई तो अफसर कोड़ों से मारता है। पांच साल तक आने का हुकुम नहीं है, उस पर तरह-तरह की सखती होती रहती है। औरतों की बड़ी बेइज्जती होती है, किसी की आबरू बेचने नहीं पाती। अफसर सब गोरे हैं, और औरतों को पकड़ ले जाते हैं। अल्लाह न करे कि कोई उन दलालों के फंदे में फंसे! पांच-छह साल में कुछ रुपये जरूर हो जाते हैं, पर उस लतखोरी से तो अपने देश की रूखी ही अच्छी है। मुझे तो बिस्सास ही नहीं आता कि हलधर उनके फांसे में आ जाये।

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