नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
हरदास– साधु लोग भी आदमियों को बहका ले जाते हैं।
फत्तू– हां सुना तो है, मगर हलधर साधुओं की संगत में नहीं बैठा। गांजे चरस की भी चाट नहीं कि इसी लालच से जा बैठता हो।
मंगरू– साधु आदमियों को बहका कर क्या करते हैं?
फत्तू– भीख मंगवाते हैं और क्या करते हैं। अपना टहल करवाते हैं, बर्तन मंजवाते हैं, गांजा भरवाते हैं, भोले आदमी समझते हैं, बाबा जी सिद्ध है, प्रसन्न हो जायेंगे तो एक चुटकी राख में मेरा भला हो जायेगा, मुकुत बन जायेगी। वह घाते में। कुछ कामचोर निखट्टू ऐसे भी हैं जो केवल मीठे पदार्थों के लालच में साधुओं के साथ पड़े रहते हैं। कुछ दिनों में यही टहलुवे संत बन बैठते हैं। और अपने टहल के लिए किसी दूसरे को मूंडते हैं। लेकिन हलधर न तो पेटू ही है, न कामचोर ही है।
हरदास– कुछ तुम्हारा मन कहता है वह किधर गया होगा? तुम्हारा उसके सात आठों पहर का उठना-बैठना है।
फत्तू– मेरी समझ में तो वह परदेश चला गया। २०० रू कंचनसिंह के आते थे। ब्याज समेत २५० रू हुए होंगे। लगान की धौंस अलग। अभी दूधमुंहा बालक है, संसार का रंग-ढंग नहीं, थोड़े में ही फूल उठता है और थोड़े में ही हिम्मत हार बैठता है। सोचा होगा, कहीं परदेश चलूं और मेहनत-मजूरी करके सौ दो सौ ले आऊं। दो-चार दिन में चिट्ठी-पत्तर आयेगी।
मंगरू– और तो कोई चिन्ता नहीं, मर्द है, जहां रहेगा वहीं कमा खायेगा, चिन्ता तो उसकी घर वाली की है। अकेले कैसे रहेगी?
हरदास– मैके भेज दिया जाये।
मंगरू– पूछों, जायेगी?
फत्तू– पूछना क्या है, कभी न जायेगी। हलधर होता तो जाती। उसके पीछे कभी जा सकती।
राजेश्वरी– (द्वार पर खड़ी होकर) हां काका, ठीक कहते हो। अभी मैके चली जाऊं तो घर और गांव वाले यहीं न कहेंगे कि उनके पीछे गांव में दस-पांच दिन भी कोई देखभाल करने वाला नहीं रहा तभी तो चली आयी। तुम लोग मेरी कुछ चिन्ता न करो। सलोनी काकी को घर में सुला लिया करूंगी। और डर ही क्या है? तुम लोग तो हो ही।
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