नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
चौथा दृश्य
[स्थान– हलधर का घर, राजेश्वरी और सलोनी आंगन में लेटी हुई हैं, समय– आधीरात।]
राजेश्वरी– (मन में) आज उन्हें गये दस दिन हो गये। मंगल-मंगल आठ, बुद्ध नौ, बृहस्पत दस। कुछ खबर नहीं मिली, न कोई चिट्ठी न पत्तर। मेरा मन बारम्बार यही कहता है कि यह सब सबलसिंह की करतूत है। ऐसे दानी-धर्मात्मा पुरुष कम होंगे, लेकिन मुझ नसीबों जली के कारण उनका दान-धर्म सब
मिट्टी में मिला जाता है। न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरा जन्म हुआ! मुझमें ऐसा कौन-सा गुन है? न मैं ऐसी सुन्दरी हूं, न इतने बनाव-सिंगार से रहती हूं, माना इस गांव में मुझसे सुन्दर और कोई स्त्री नहीं है। लेकिन शहर में तो एक-से-एक पड़ी हुई हैं। यह सब मेरे अभाग का फल है। मैं अभागिन हूं। हिरन कस्तूरी के लिए मारा जाता है। मैना अपनी बोली के लिए पकड़ी जाती है। फूल अपनी सुगंध के लिए तोड़ा जाता है। मैं भी अपने रूप-रंग के हाथों मारी जा रही हूं।
सलोनी– क्या नींद नहीं आती बेटी?
राजेश्वरी– नहीं काकी, मन बड़ी चिन्ता में पड़ा हुआ है। भला क्यों काकी, अब कोई मेरे सिर पर तो रहा नहीं, अगर कोई पुरुष मेरा धर्म बिगाड़ना चाहे तो क्या करूं?
सलोनी– बेटी, गांव के लोग उसे पीस कर पी जायेंगे।
राजेश्वरी– गांववालों पर बात खुल गयी तो मेरे माथे कलंक लग ही जायेगा।
सलोनी– उसे दंड़ देना होगा। उससे कपट-प्रेम करके उसे विष पिला देना होगा। विष भी ऐसा कि फिर वह आंखें न खोले। भगवान को, चन्द्रमा को, इन्द्र को, जिस अपराध का दंड मिला था। क्या हम उसका बदला न लेंगी। यही हमारा धरम है। मुंह से मीठी-मीठी बातें करो पर मन में कटार छिपाये रखो।
राजेश्वरी– (मन में) हां, अब यही मेरा धरम है। अब छल और कपट से ही मेरी रक्षा होगी। वह धर्मात्मा सही, दानी सही, विद्वान सही, यह भी जानती हूं कि उन्हें मुझसे प्रेम है, सच्चा प्रेम है। वह मुझे पाकर मुग्ध हो जायेंगे, मेरे इसारों पर नाचेंगे, मुझ पर अपने प्राण न्योछावर करेंगे। क्या मैं इस प्रेम के बदले कपट कर सकूंगी। जो मुझ पर जान देगा, मैं उसके साथ कैसे दगा करूंगी? यह बात मरदों में ही है कि जब वह किसी दूसरी स्त्री पर मोहित हो जाते हैं तो पहली स्त्री के प्राण लेने से भी नहीं हिचकते। भगवान, यह मुझसे कैसे होगा? (प्रकट) क्यों काकी, तुम अपनी जवानी में तो बड़ी सुन्दर रही होगी?
सलोनी– यह तो नहीं जानती बेटी, पर इतना जानती हूं कि तुम्हारे काका की आंखों में मेरे सिवा और कोई स्त्री जंचती ही न थी। जब तक चार-पांच लड़कों की मां न हो गयी पनघट पर न जाने दिया।
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