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संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


राजेश्वरी– बुरा न मानना काकी, यों ही पूछती हूं, उन दिनों कोई दूसरा तुम पर मोहित हो जाता और काका, को जेल भिजवा देता तो तुम क्या करती?

सलोनी– करती क्या, एक कटारी अंचल के नीचे छिपा लेती। जब वह मेरे ऊपर प्रेम के फूलों की वर्षा करने लगता, मेरे सुख-विलास के लिए संसार के अच्छे-अच्छे पदार्थ जमा कर देता, मेरे एक कटाक्ष पर, एक मुस्कान पर, एक भाव पर फूला न समाता, तो मैं उससे प्रेम की बातें करने लगती। जब उस पर नशा छा जाता, वह मतवाला हो जाता तो कटार निकाल कर उसकी छाती में भोंक देती।

राजेश्वरी– तुम्हें उस पर तनिक भी दया न आती?

सलोनी– बेटी, दया दीनों पर की जाती है कि अत्याचारियों पर? धर्म प्रेम के ऊपर है, उसी भांति जैसे चंद्रमा सूरज के ऊपर है। चंद्रमा की ज्योति देखने में अच्छी लगती है, लेकिन सूरज की ज्योति से संसार का पालन होता है।

राजेश्वरी– (मन में) भगवान, मुझसे यह कपट-व्यवहार कैसे निभेगा! अगर कोई दुष्ट, दुराचारी आदमी होता तो मेरा काम सहज था। उसकी दुष्टता मेरे क्रोध को भड़का देती। भय तो इस पुरुष की सज्जनता से है। इससे बड़ा भय उसके निष्कपट प्रेम से है। कहीं प्रेम की तरंगों में बह तो न जाऊंगी, कहीं विलास में तो मतवाली न हो जाऊंगी। कहीं ऐसा तो न होगा कि महलों को देखकर मन में इन झोपड़े का निरादार होने लगे, तकियों पर सो कर यह टूटी खाट गड़ने लगे, अच्छे-अच्छे भोजन के सामने इस रूखे-सूखे भोजन से मन फिर जाये, लौंडियों के हाथ पान की तरह फेरे जाने से यह मेहनत-मजूरी अखरने लगे। सोचने लगूं ऐसा सुख पाकर क्यों उस पर लात मारूं? चार दिन की जिंदगानी है उसे छल-कपट, मारने-मारने में क्यों गंवाऊं? भगवान की जो इच्छा थी वह हुआ और हो रहा है। (प्रकट) काकी, कटार भोंकते हुए तुम्हें डर न लगता?

सलोनी– डर किसी बात का? क्या मैं पंछी से भी गयी बीती हूं। चिड़िया को सोने के पिंजरे में रखो, मेवे और मिठाई खिलाओ, लेकिन वह पिंजरे का द्वार खुला पाकर तुरंत उड़ जाती है। अब बेटी सोओ, आधी रात से ऊपर हो गयी। मैं तुम्हें गीत सुनाती हूं।

[गाती है]

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।

राजेश्वरी– (मन में) इन्हें गाने की पड़ी है। कंगाल होकर जैसे आदमी को चोर का भय नहीं रहता, न आगम, को कोई चिंता, उसी भांति जब कोई आगे पीछे नहीं रहता तो आदमी निश्चिंत हो जाता है। (प्रकट) काकी, मुझे भी अपनी भांति प्रसन्न-चित्त रहना सिखा दो।

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