नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
|
10 पाठकों को प्रिय 269 पाठक हैं |
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सलोनी– ऐ, नौज बेटी, चिंता धन और जन से होती है। जिसे चिंता न हो वह भी कोई आदमी है। वह अभागा है, उसका मुंह देखना पाप है। चिंता बड़े भागों से होती है। तुम समझती होगी, बुढ़िया हरदम प्रसन्न रहती है तभी तो गाया करती है। सच्ची बात यह है कि मैं गाती नहीं रोती हूं। आदमी को बड़ा आनन्द मिलता है तो रोने लगता है उसी भांति जब दुख अथाह हो जाता है तो गाने लगता है। इसे हंसी मत समझो, यह पागलपन है। मैं पगली हूं। पचास आदमियों का परिवार आंखों के सामने से उठ गया। देखें भगवान इस मिट्टी की कौन गत करते हैं।
[गाती है।]
ए जी पावन की, घर लावन की।।
छोड़ काज अरू लाज जगत की।
निश दिन ध्यान लगावत की।। मुझे लगन०।।
सुरत उजाली खुल गयी ताली
गगन महन में जावन की।। मुझे०।।
झिलमिल कारी जी निहारी
जैसे बिजली सावन की।
मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।
बेटी- तुम हलधर का सपना तो नहीं देखती हो?
राजेश्वरी– बहुत बुरे-बुरे सपने देखती हूं। इसी डर के मारे तो मैं और नहीं सोती। आंख झपकी और सपने दिखाई देने लगे।
सलोनी– कल से तुलसी माता को दिया चढ़ा दिया करो। एतवार मंगल को पीपल में पानी दिया करो। महावीर सामी को लड्डू की मनौती कर दो। कौन जाने देवताओं के प्रताप से लौट आये। अच्छा अब महावीर जी का नाम ले कर सो जाव। रात बहुत गयी है, दो घड़ी में भोर हो जायेगा।
[सलोनी करवट बदलकर सोती है और खर्राटे भरने लगती है।]
|