नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– (मन में) कैसे पवित्र विचार है। ऐसा नारी-रत्न पा कर मैं उसके सुख से वंचित हूं। मैं कमल तोड़ने के लिए क्यों पानी में घुसा जब जानता था कि वहां दलदल है। मदिरा पीकर चाहता हूं कि उसका नशा न हो।
राजेश्वरी– (मन में) भगवन् देखूं अपने व्रत का पालन कर सकती हूं या नहीं। कितने पवित्र भाव हैं, कितना अगाध प्रेम।
सबल– (उठकर) प्रिये, कल इसी वक्त फिर आऊंगा। प्रेमालिंगन के लिए चित्त उत्कंठित हो रहा है।
राजेश्वरी– यहां प्रेम की शांति नहीं, प्रेम की दाह है। जाइए। देखूं अब यह पहाड़-सा दिन कैसे कटता है। नींद भी जाने भाग गयी।
सबल– (छज्जे के जीने से लौटकर) प्रिये, गजब हो गया, वह देखो, कंचन सिंह जा रहे हैं। उन्होंने मुझे यहां से उतरते देख लिया। अब क्या करूं?
राजेश्वरी– देख लिया तो क्या हरज हुआ? समझे होंगे आप किसी मित्र से मिलने आये होंगे। जरा मैं भी उन्हें देख लूं।
सबल– जिस बात का मुझे डर था वही हुआ। अवश्य ही उन्हें कटु टोह लग गयी है। नहीं तो इधर उनके आने का कोई काम न था। यह तो उनके पूजा-पाठ का समय है। इस वक्त कभी बाहर नहीं निकलते। हां, गंगास्नान करने जाते हैं, मगर घड़ी रात रहे। इधर से कहाँ जायेंगे? घरवालों को संदेह हो गया।
राजेश्वरी– आपसे स्वरूप बहुत मिलता हुआ है। सुनहरी ऐनक खूब खिलती है।
सबल– अगर वह सिर झुकाये अपनी राह चले जाते तो मुझे शंका न होती पर वह इधर-उधर नीचे-ऊपर इस भांति ताकते जाते थे जैसे शोहदे कोठों की ओर झांकते हैं यह उनका स्वभाव नहीं है। बड़े ही धर्मज्ञ, सच्चरित्र, ईश्वर भक्त पुरुष हैं। सांसारिकता से उन्हें घृणा है। इसलिए अब तक विवाह नहीं किया।
राजेश्वरी– अगर यह हाल है तो यहां पूछताछ करने जरूर आयेंगे।
सबल– मालूम होता है इस घर का पता पहले लगा लिया है। इस समय पूछताछ करने ही आए थे। मुझे देखा तो लौट गये। अब मेरी लज्जा, मेरा लोक सम्मान, मेरा जीवन तुम्हारे अधीन है। तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकती हो।
राजेश्वरी– क्यों न कोई दूसरा मकान ठीक कर लीजिए।
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