नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सबल– इससे कुछ न होगा। बस यही उपाय है कि जब वहां आयें तो उन्हें चकमा दिया जाये। कहला भेजो, मैं सबलसिंह को नहीं जानती। वह यहां नहीं आते। दूसरा उपाय यह है कि उन्हें कुछ दिनों के लिए यहां से टाल दूं। कह देता हूं कि जाकर लालपुर से गेहूं खरीद लाओ। जब तक हम लोग यहां से कहीं और चल देंगे।
राजेश्वरी– यही तरकीब अच्छी है।
सबल– अच्छी तो है, पर हुआ बड़ा अनर्थ। अब परदा ढका रहना कठिन है।
राजेश्वरी– (मन में) ईश्वर, यही मेरी प्रतिज्ञा के पूरे होने का अवसर है। मुझे बल प्रदान करो। (प्रकट) यह सब मुसीबतें मेरी लायी हुई हैं। मैं क्या जानती थी कि प्रेम-मार्ग में इतने कांटे हैं!
सबल– मेरी बातों का ध्यान रखना। मेरे होश ठिकाने नहीं है, चलूं, देखूं मुआमला अभी कंचन सिंह ही तक या ज्ञानी को भी खबर हो गयी।
राजेश्वरी– आज संध्या समय आइएगा। मेरा जी उधर ही लगा रहेगा।
सबल– अवश्य आऊंगा। अब तो मन लागि रह्यो, होनी हो सो होई। मुझे अपनी कीर्ति बहुत प्यारी है। अब तक मैंने मान-प्रतिष्ठा ही को जीवन का आधार समझ रखा था, पर अवसर आया तो मैं इसे प्रेम की वेदी पर उसी तरह चढ़ा दूंगा जैसे पुष्पों को चढ़ा देता है, नहीं जैसे कोई ज्ञानी पार्थिव वस्तुओं को लात मार देता है।
[जाता है]
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