नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– मन में) इनके आने का क्या प्रयोजन है? कहीं उन्होंने जाकर इन्हें कुछ कहा-सुना तो नहीं? आप ही मालूम हो जायेगा। अब मेरा दांव आया है। ईश्वर मेरे सहायक है। मैं किसी भाँति आप ही इनसे मिलना चाहती थी। वह स्वयं आ गये (आईने में सूरत देखकर) इस वक्त किसी बनाव चुनाव की जरूरत नहीं यह अलसायी मतवाली आँखें सोहलों सिंगार के बराबर हैं क्या जानें किस स्वभाव का आदमी है। अभी तक विवाह नहीं किया है, पूजा-पाठ, पोथी-पत्रे से रात-दिन लिप्त रहता है। इस पर मंत्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता है, पर असाध्य नहीं है। पर मैं तो कहती हूँ, कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर ही सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगा। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूं। भगवान ने यह रूप दिया था तो ऐसे पुरुष का संग क्यों दिया जो बिल्कुल दूसरों की मुट्ठी में था! यह उसी का फल है कि जिन सज्जन की मुझे पूजा करनी चाहिए थी, आज मैं उनके खून की प्यासी हो रही हूं। क्यों न खून की प्यासी होऊ? देवता ही क्यों न हो, जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं। यह दयावान हैं, धर्मात्मा हैं, गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया। दीन-दुनिया कहीं का नहीं रखा। मेरे पीछे एक बेचारे भोले-भाले, सीधे-सादे आदमी प्राणों के घातक हो गये। कितने सुख से जीवन कटता था। अपने घर में रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थी, मोटा पहनती थी, पर गाँव-भर में मरजाद तो थी। नहीं तो यहाँ इस तरह मुंह में कालिख लगाये चोरों की तरह पड़ी हूं जैसे कोई कैदी कालकोठरी में बन्द हो। आ गये कंचनसिंह, चलूँ (दीवानखाने में आकर) देवर जी को प्रणाम करती हूं।
कंचन– (चकित होकर मन में) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुंदरी रमणी है। रम्भा के चित्र से कितनी मिलती-जुलती है! तभी तो भाई साहब लोट-पोट हो गये। वाणी कितनी मधुर है। (प्रकट) मैं बिना आज्ञा ही चला आया, इसके लिए क्षमा मांगता हूँ। सुना है भाई साहब का कड़ा हुक्म है कि यहाँ कोई न आने पाये।
राजेश्वरी– आपका घर, आपके लिए क्या रोक-टोक। मेरे लिए तो जैसे आपके भाई साहब वैसे आप। मेरे धन्य भाग कि आप जैसे भक्त पुरुष के दर्शन हुए।
कंचन– (असमंजश) में पड़कर मन में) मैंने काम कितना सहज समझा था उससे कहीं कठिन निकला। सौंदर्य कदाचित् बुद्धि-शक्तियों को हर लेता है। जितनी बातें सोचकर चला था वह सब भूल गयीं, जैसे कोई नया पट्ठा अखाड़े में उतरते ही अपने सारे दांव-पेंच भूल जाये। कैसे बात छेड़ूं? (प्रकट) आपको यह तो मालूम ही होगा कि भाई साहब आपके साथ कहीं बाहर जाना चाहते हैं?
राजेश्वरी– (मुस्कराकर) जी हाँ, यह निश्चय हो चुका है।
कंचन– अब किसी तरह नहीं रूक सकता?
कंचन– ईश्वर न करे, पर मेरा आशय यह था कि आप भाई साहब को रोंके तो अच्छा हो। वह एक बार घर से जाकर फिर मुश्किल से लौटेंगे। भाभी जी को जब से यह बात मालूम हुई है वह बार-बार भाई साहब के साथ चलने पर जिद कर रही है। अगर भैया छिप कर चले गये तो भाभी के प्राणों ही पर बन जायेंगी।
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