नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
(हलधर का प्रवेश, गाता है।)
अपना दुख रोने लगीं, जो कुछ बदा लिलार।
पहली सखी बोली सुनो चार बहनो मेरा पिया सराबी है,
कफन की कौड़ी पास न रखता दिल का बड़ा नवाबी है।
जो कुछ पाता सभी उड़ाता घर की अजब खराबी है।
लोटा-थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है।
बात-बात पर आंख बदलता इतना बड़ा मिजाजी है।
एक हाथ में दोना कुल्हड़, दूजे बोतल गुलाबी है।
पहला डाकू– कौन है? खड़ा रह।
हलधर– तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूं। कहो कहते हो?
दूसरा डाकू– (साथियों से) जवान तो बड़ा गठीला ओर जीवट का है। (हलधर से) किधर चले। घर कहां है?
हलधर– यह सब आल्हा पूछ कर क्या करोगे? अपना मतलब कहो।
तीसरा डाकू– हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलासी लिये किसी को जाने नहीं देते।
हलधर– (चौकन्ना होकर) यहाँ क्या धरा है जो तलाशी को धमकाते हो। धन के नाते यह लाठी है और इसे मैं बिना दस-पाँच सिर फोड़े दे नहीं सकता।
चौथा– तुम समझ गये, हम लोग कौन हैं, या नहीं?
हलधर– ऐसा क्या निरा बुद्धू ही समझ लिया है?
चौथा– तो गाँठ में जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों मचाते हो?
हलधर– तुम भी निरे गंवार हो। चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हो।
पहला– यारों संभल कर पालकी आ रही है।
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