नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक) संग्राम (नाटक)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
राजेश्वरी– प्राणेश्वर, आप मुझसे ऐसे सवाल पूछ कर दिल न जलायें यह कहां की रीति है कि जब कोई आदमी अपने पास आये तो उसको दुत्कार दिया जाये, वह भी जब आपका भाई हो। मैं इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती। उनसे मिलने में तो भय होता कि मेरा अपना चित्त चंचल होता, मुझे अपने ऊपर विश्वास न होता। प्रेम के गहरे रंग में सराबोर होकर अब मुझ पर किसी दूसरे रंग के चढ़ने की सम्भावना नहीं है। हां, आप बाबू कंचनसिंह को किसी बहाने से समझा दीजिए कि अब से यहां न आयें। वह ऐसी प्रेम और अनुराग की बातें करने लगते हैं कि उसके ध्यान से ही लज्जा आने लगती है। विवश होकर बैठती हूं, सुनती हूं।
सबल– (उन्मत्त होकर) पाखंडी कहीं का, धर्मात्मा बनता है, विरक्त बनता है, और कर्म ऐसे नीच! तू मेरा भाई सही, पर तेरा वध करने में कोई पाप नहीं है। हां, इस राक्षस की हत्या मेरे ही हाथों होगी। ओह! कितनी नीच प्रकृति है, मेरा सगा भाई और यह व्यवहार! असह्य है, अक्षम्य है। ऐसे पापी के लिए नर्क ही सबसे उन्मत्त स्थान है। आज ही इसी रात को तेरी जीवन-लीला समाप्त हो जायेगी। तेरा दीपक बुझ जायेगा। हां, धूर्त क्या कामलोलपुता के लिए यही एक ठिकाना था! तुझे मेरे ही घर में आग लगानी थी। मैं तुझे पुत्रवत प्यार करता था। तुझे...(क्रोध से होठ चबा कर) तेरी लाश को इन्हीं आंखों से तड़पते हुए देखूंगा।
[नीचे चला जता है।]
राजेश्वरी– (आप-ही-आप) ऐसा जान पड़ता है, भगवान स्वयं सारी लीला कर रहे हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब- कुछ होता हुआ मालूम होता है। कैसा विचित्र रहस्य है। दो बैलों को मारा जाना नहीं देख सकती थी, चिउंटियों के पैरों-तले पड़ते देखकर मैं पांव हटा दिया करती थी; पर अभाग्य मुझसे यह हत्या-कांड करा रहा है! मेरे ही निर्दय हाथों के इशारे से यह कठपुतलियां नाच रही हैं!
[करुण स्वरों में गाती है।]
ऊधो कर्मन की गति न्यारी।
[गाते-गाते प्रस्थान।]
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