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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

सातवां दृश्य

[स्थान– दीवानखाना, समय– ३ बजे रात, घटा छायी हुई है, सबलसिंह तलवार हाथ में लिये द्वार पर खड़े हैं।]

सबल– (मन में) अब सो गया होगा। मगर नहीं, आज उसकी आंखों में नींद कहां। पड़ा-पड़ा प्रेमाग्नि में जल रहा होगा, करवटें बदल रहा होगा। उस पर यह हाथ न उठ सकेंगे। मुझमें इतनी निर्दयता नहीं है। मैं जानता हूं, वह मुझपर प्रतिघात न करेगा। मेरी तलवार को सहर्ष अपनी गर्दन पर ले लेगा। हां! यही तो उसका प्रतिघात होगा। ईश्वर करे वह मेरी ललकार पर सामने खड़ा हो जाये। जब यह तलवार वज्र की भांति उसकी गर्दन पर गिरेगी। अरक्षित, निश्शस्त्र पुरुष। पर मुझसे आघात न होगा। जब वह करुण दीन नेत्रों से मेरी ओर ताकेगा– जैसे छुरे के नीचे बकरा ताकता है– तो मेरी हिम्मत छूट जायेगी।

[धीरे-धीरे कंचनसिंह के कमरे की ओर बढ़ता है।]

हा! मानव-जीवन कितना रहस्मय है। हम दोनों ने एक ही मां के उदर से जन्म लिया, एक ही स्तन से दूध पिया, सदा एक साथ खेले पर आज मैं उसकी हत्या करने को तैयार हूं। कैसी विडम्बना है। ईश्वर करे उसे नींद आ गयी हो। सोते को मारना धर्म-विरुद्ध हो, पर कठिन नहीं है। दीनता दया को जागृत कर देती है...(चौंक कर) अरे! यह कौन तलवार लिये बढ़ा चला आता है। कहीं छिप कर देखूं इनकी क्या नीयत है। लम्बा आदमी है, शरीर कैसा गठा हुआ है। किवाड़ के दरारों से निकलते हुए प्रकाश में आ जाये तो देखूं कौन है। वह आ गया। यह तो हलधर मालूम होता है, बिल्कुल वही है लेकिन हलधर के दाढ़ी नहीं थी। सम्भव है दाढ़ी निकल आयी हो, पर है हलधर, हां वही है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। राजेश्वरी की टोह किसी तरह मिल गयी। अपमान का बदला लेना चाहता है। कितना भयंकर स्वरूप हो गया है। आंखें चमक रही हैं। अवश्य हमसें से किसी का खून करना चाहता है। मेरी ही जान का गाहक होगा। कमरे में झांक रहा है। चाहूं तो अभी पिस्तौल से इसका काम तमाम कर दूं। पर नहीं। खूब सूझी। क्यों न इससे वह काम लूं जो मैं नहीं कर सकता। इस वक्त कौशल से काम लेना ही उचित है। (तलवार छिपाकर) कौन है हलधर?

[हलधर तलवार खींच तक चौकन्ना हो जाता है।]

सबल– हलधर, क्या चाहते हो?

हलधर– (सबल के सामने आकर) संभल जाइएगा, मैं चोट करता हूं।

सबल– क्यों मेरे खून के प्यासे हो रहे हो?

हलधर– अपने दिल से पूछिए।

सबल– तुम्हारा अपराधी मैं नहीं हूं, कोई दूसरा ही है।

हलधर– क्षत्री होकर आप प्राणों के भय से झूठ बोलते नहीं लजाते।

सबल– मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं।

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