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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


हलधर– अच्छी बात है, जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा। अगर इस समय धोखा देकर बच भी गए तो फिर क्या कभी दाव ही न आयेगा? मेरे हाथों से बचकर अब नहीं जा सकते। मैं चाहूं तो एक क्षण में तुम्हारे कुल का नाश कर दूं, पर मैं हत्यारा नहीं हूं। मुझे धन की लालसा नहीं है। मैं तो केवल अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूं। आपको भी सचेत किये देता हूं। मैं अभी और टोह लगाऊंगा। अगर पता चला कि आपने मेरा घर उजाड़ा है तो मैं आपको भी जीता न छोड़ूंगा। मेरा तो जो होना था हो चुका, पर मैं अपने उजाड़ने वालों का कुकर्म का सुख न भोगने दूंगा।

[चला जाता है।]

सबल– (मन में) मैं कितना नीच हो गया हूं। झूठ, दगा, फरेब किसी पाप से भी मुझे हिचक नहीं होती। पर जो कुछ भी हो हलधर बड़े मौके से आ गया। अब बिना लाठी टूटे ही सांप मरा जाता है।

[प्रस्थान।]

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