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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

आठवां दृश्य

[स्थान– नदी का किनारा, समय-चार बजे भोर, कंचन पूजा की सामग्री लिये आता है, और एक तख्त पर बैठ जाता है, फिटन घाट के ऊपर ही रूक जाता है।]

कंचन– (मन में) यह जीवन का अन्त है! यह बड़े-बड़े इरादों और मनसूबों का परिणाम है। इसीलिए जन्म लिया था। यही मोक्षपद है। यह निर्वाण है। माया-बंधनों से मुक्त रह कर आत्मा को उच्चतम पद पर ले जाना चाहता था। यह वही महान पद है। यह मेरी सुकीर्तिरूपी धर्मशाला है, यही मेरा आदर्श कृष्ण मंदिर है। इतने दिनों के नियम और संयम, सत्संग और भक्ति, दान और व्रत ने अन्त में मुझे वहां पहुंचाया होता। मैंने जीवन यात्रा का कठिनतम मार्ग लिया, पर हिंसक जीव-जन्तुओं से बचने का, अथाह नदियों को पार करने का दुर्गम घाटियों से उतरने का कोई साधन अपने साथ न लिया। मैं स्त्रियों से अलग-अलग रहता था, इन्हें जीवन का कांटा समझता था, इनके बनाव श्रंगार को देख कर मुझे घृणा होती थी। पर आज वह स्त्री जो मेरे भाई की प्रेमिका है, जो मेरी माता के तुल्य है– प्रेम में इतनी शक्ति है, मैं यह न जानता था! हाय यह आग बुझती नहीं दिखायी देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शान्त होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवन का अन्त होना ही अच्छा है। इस आत्म-पतन के बाद अब जीना धिक्कार है जीने से यह तप और ज्वाला दिन-दिन प्रचण्ड होगी। घुल-घुलकर, कुढ़-कुढ़कर मरने से, घर में बैर का बीज बोने में जो अपने पूज्य है उनमें वैमनस्य करने से यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूल ही का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरी को किसी तरह नहीं भूल सकता, किसी तरह ध्यान से नहीं उतार सकता।

[चेतनदास का प्रवेश]

कंचन– स्वामी जी को दंडवत करता हूं।

चेतन– बाबा, सदा सुखी रही। इधर कई दिनों से तुमको नहीं देखा। मुख मलिन है, अस्वस्थ तो नहीं थे?

कंचन– नहीं महाराज, आपके आशीर्वाद से कुशल से हूं। पर कुछ ऐसे झंझटों में पड़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका। बड़ा सौभाग्य था कि आज प्रातः काल आपके दर्शन हो गये। आप तीर्थयात्रा पर कब जाने का विचार कर रहे हैं?

चेतन– बाबा, अब तक चला गया होता, पर भगतों से पिंड नहीं छूटता। विशेषतः मुझे तुम्हारे कल्याण के लिए तुमसे कुछ कहना था और बिना कहे मैं न जा सकता था। यहां इसी उद्देश्य से आया हूं। तुम्हारे ऊपर एक घोर संकट आने वाला है। तुम्हारा भाई सबलसिंह तुम्हें वध कराने की चेष्टा कर रहा है। घातक शीघ्र ही तुम्हारे ऊपर आघात करेगा। सचेत हो जाओ।

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