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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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जुल्फिकार अली खाँ गरम होकर बोले– आये तो महकमे पर कोई एहसान नहीं किया। किसी दूसरे सीगे में होते तो अभी तक ठोकरें खाते होते, नहीं तो घोड़े पर सवार नौशा बने घूमते हैं। मैं तो बात सच्ची कहता हूँ। चाहे किसी को अच्छी लगे या बुरी। इनसे पूछिए, हराम की कमाई अकेले आज तक किसी को हज़म हुई है? यह नए लोग जो आते हैं, उनकी यह आदत होती है कि जो कुछ मिले, अकेले ही हजम कर लें। चुपके-चुपके लेते हैं और थाने के अहलकार मुँह ताकते रह जाते हैं। दुनिया की निगाह में ईमानदार बनना चाहते हैं, पर खुदा से नहीं डरते। अरे, जब हम खुदा ही से नहीं डरते तो आदमियों का क्या खौफ? ईमानदार बनना हो तो दिल से बनो। सचाई का स्वाँग क्यों भरते हो? यह हजरत छोटी-छोटी रकमों पर गिरते हैं। मारे गुरूर के किसी आदमी से राय तो लेते नहीं! जहाँ आसानी से सौ रुपये मिल सकते हैं, वहाँ पाँच रुपये में बुलबल हो जाते हैं। कहीं दूध वाले के दाम मार लिये, कहीं हज्जाम के पैसे दबा लिये, कहीं बनिये से निर्ख के लिए झगड़ बैठे। यह अफसरी नहीं, टुच्चापन है। गुनाह बेलज्जत, फायदा तो कुछ नहीं, बदनामी मुफ़्त। मैं बड़े-बड़े शिकारों पर निगाह रखता हूँ। यह पिद्दी और बटेर मातहतों के लिए छोड़ देता हूँ। हलफ से कहता हूँ, गरज बुरी शै है। रिश्वत देनेवालों से ज्यादा अहमक अन्धे आदमी दुनिया में न होंगे। ऐसे कितने ही उल्लू आते हैं कि मैं उनके किसी पट्टीदार या दुश्मन को दो–चार खोटी-खरी सुना दूँ, कई ऐसे बेईमान जमींदार आते हैं; जो यह चाहते हैं कि वह असामियों पर जुल्म करते रहें और पुलिस दखल न दे। इतने ही के लिए वह सैकड़ों रुपये मेरी नजर करते हैं और खुशामद घेलुए में। ऐसे अक्ल के दुश्मनों पर रहम करना हिमाकत है। जिले में मेरे इस इलाके को सोने की खान कहते हैं। इस पर सबके दाँत रहते हैं। रोज एक न एक शिकार मिलता रहता है। जमींदार निरे जाहिल, लंठ, जरा-जरा सी बात पर फौजदारियाँ कर बैठते हैं। मैं तो खुदा से दुआ करता रहता हूँ कि यह हमेशा इसी जहालत के गढ़े में पड़े रहें। सुनता हूँ कोई साहब आम तालीम का सवाल पेश कर रहे हैं। उस भलेमानुस को न जाने क्या धुन है। शुक्र है कि हमारी आली फहम सरकार ने उसे नामंजूर कर दिया। बस, इस सारे इलाके में एक यही आपका पट्टीदार अलबत्ता समझदार आदमी है। उसके यहाँ मेरी या किसी और की दाल नहीं गलती और लुत्फ यह कि कोई उससे नाखुश नहीं! बस, मीठी-मीठी बातों से मन भर देता है। अपने असामियों के लिए जान देने को हाजिर, और हलफ से कहता हूँ कि अगर मैं होता, तो इसी शख्त का तरीका अख्तियार करता। जमींदार का फर्ज है कि अपने असामियों को जुल्म से बचाए। उन पर शिकारियों का वार न होने दे। बेचारे गरीब किसानों की जान के सभी ग्राहक होते हैं और हलफ से कहता हूँ, उनकी कमाई उनके काम नहीं आती। उनकी मेहनत का मजा हम लूटते हैं। यों तो जरूरत से मजबूर होकर इंसान क्या नहीं कर सकता; पर हक यह है कि इन बेचारों की हालत वाकई रहम के काबिल है और जो शख्स उनके लिए सीना-सिपर हो सके, उसके कदम चूमने चाहिए। मगर मेरे लिए तो वही आदमी सबसे अच्छा है, जो शिकार में मेरी मदद करे।

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