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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


इस प्रलोभन से पंडित जी को एक क्षण के लिए विचलित कर दिया किंतु मूर्खता के कारण ईश्वर का भय उनके मन में कुछ– कुछ बाकी था। सँभाल कर बोले– अरी पगली, ठाकुर जी भक्तों के मन का भाव देखते हैं कि चरण पर गिरना देखते है। सुना नहीं है– ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ मन में भक्ति न हो, तो लाख कोई भगवान् के चरणों पर गिरे, कुछ न होगा। मेरे पास एक जंतर है। दाम तो उसका बहुत है पर तुझे एक ही रुपये में दे दूँगा। उसे बच्चे के गले में बाँध देना, बस, कल बच्चा खेलने लगेगा।

सुखिया– ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे?

पुजारी– तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। जो बात कभी नहीं हुई, वह आज मैं कर दूँ और गाँव पर कोई आफत– विपत आ पड़े तो क्या हो, इसे भी तो सोचो! तू यह जंतर ले जा, भगवान् चाहेंगे तो रात ही भर में बच्चे का क्लेश कट जायेगा। किसी की दीठ पड़ गयी है। है भी तो चोंचाल। मालूम होता है, छत्तरी बंस है।

सुखिया– जब से इसे ज्वर है मेरे प्राण नहों में समाये हुए हैं।

पुजारी– बड़ा होनहार बालक है। भगवान् जिला दें तो तेरे सारे संकट हर लेगा। हाँ तो बहुत खेलने आया करता था। इधर दो– तीन दिन से नहीं देखा था।

सुखिया– तो जंतर को कैसे बाँधूँगी महाराज?

पुजारी– मैं कपड़े में बाँधकर देता हूँ। बस, गले में पहना देना अब तू इस बेला नवीन बस्तर कहाँ खोजने जायेगी।

सुखिया ने दो रुपये पर कड़े गिरो रखे थे। एक पहले ही भँजा चुकी थी। दूसरा पुजारी जी को भेंट किया और जंतर लेकर मन को समझाती हुई घर लौट आयी।

सुखिया ने घर पहुँचकर बालक को जंतर बाँध दिया ज्यों– ज्यों रात गुजरती थी उसका ज्वर भी बढ़ता जाता था, यहाँ तक कि तीन बजते– बजते उसके हाथ पाँव शीतल होने लगे। तब वह घबड़ा उठी और सोचने लगी– हाय। अगर मैं अन्दर चली जाती और भगवान् के चरणों में गिर पड़ती तो कोई मेरा क्या कर लेता? यही न होता कि लोग मुझे धक्के देकर निकाल देते, शायद मारते भी, पर मेरा मनोरथ तो पूरा हो जाता यदि मैं ठाकुर जी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती और बच्चे को उनके चरणों में सुला देती तो क्या उन्हें दया न आती? वह तो दयामय भगवान हैं, दीनों की रक्षा करते हैं, क्या मुझ पर दया न करते? यह सोचकर सुखिया का मन अधीर हो उठा। नहीं, अब विलम्ब करने का समय न था। वह अवश्य जायेगी और ठाकुर जी के चरणों पर गिर कर रोएगी। उस अबला के आशंकित हृदय को अब उसके सिवा और कोई अवलम्ब, कोई आसरा न था। मंदिर के द्वार बंद होंगे, तो वह ताले तोड़ डालेगी। ठाकुर जी क्या किसी के हाथों बिक गये हैं कि उन्हें बंद कर रखे।

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