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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


रात के तीन बज गये थे। सुखिया ने बालक को कम्बल से ढाँक कर गोद में उठाया, एक हाथ में थाली उठायी और मंदिर की ओर चली। घर से बाहर निकलते ही शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा काँपने लगा। शीत से पाँव शिथिल हुए जाते थे। उस पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। रास्ता दो फर्लांग से कम न था। पगडंडी वृक्षों के नीचे– नीचे गयी थी। कुछ दूर दाहिनी ओर एक पोखरा था, कुछ दूर बाँस की कोठियाँ में चुड़ैलों का अड्डा था। बायीं ओर हरे– भरे खेत थे। चारों ओर सन– सन हो रहा था, अंधकार साँय– साँय कर रहा था।

सहसा गीदड़ों के कर्कश स्वर से हुआँ– हुआँ करना शुरू किया। हाय! अगर कोई उसे एक लाख रुपया देता तो भी इस समय यहाँ न आती; पर बालक की ममता सारी शंकाओं को दबाये हुए थी। ‘हे भगवान् अब तुम्हारा ही आसरा है!’ यह जपती वह मंदिर की ओर चली जा रही थी।

मंदिर के द्वार पर पहुँचकर सुखिया ने जंजीर टटोल कर देखी। ताला पड़ा हुआ था। पुजारी जी बरामदे से मिली कोठरी में किवाड़ बन्द किये सो रहे थे। चारों ओर अँधेरा छाया हुआ था। सुखिया चबूतरे के नीचे से एक ईंट उठा लाई और ज़ोर– ज़ोर से ताले के ऊपर पटकने लगी। उसके हाथों में न जाने इतनी शक्ति कहाँ से आ गयी थी।

दो ही तीन चोटों में ताला और ईंट दोनों टूटकर चौखट पर गिर पड़े। सुखिया ने द्वार खोल अन्दर जाना ही चाहती थी कि पुजारी किवाड़ खोलकर हड़बड़ाये हुए बाहर निकल आये और ‘चोर, चोर!’ का गुल मचाते हुए गाँव की ओर दौड़े। जाड़ों में प्रायः पहर रात रहे ही लोगों की नींद खुल जाती है। यह शोर सुनते ही कई आदमी इधर– उधर से लालटेनें लिए हुए निकल पड़े और पूछने लगे– कहाँ है? किधर गया?

पुजारी– मंदिर का द्वार खुला पड़ा है। मैंने खट– खट की आवाज सुनी। सहसा सुखिया बरामदे से निकल कर चबूतरे पर आयी और बोली– चोर नहीं है मैं हूँ; ठाकुर जी की पूजा करने आयी थी। अभी तो अंदर गयी भी नहीं। मार हल्ला मचा दिया।

पुजारी ने कहा– अब अनर्थ हो गया! सुखिया मंदिर में जाकर ठाकुर जी को भ्रष्ट कर आयी!

फिर क्या था, कई आदमी झल्लाये हुए लपके और सुखिया पर लातों और घूसों की मार पड़ने लगी। सुखिया एक हाथ में बच्चे को पक़ड़े हुए थी और दूसरे हाथ से उसकी रक्षा कर रही थी। एकाएक बलिष्ट ठाकुर ने उसे इतनी ज़ोर से धक्का दिया कि बालक उसके हाथों से छूट कर ज़मीन पर गिर पड़ा, मगर वह न रोया न बोला, न साँस ली, सुखिया भी गिर पड़ी थी। सँभल कर बच्चे को उठाने लगी, तो उसके मुँख पर नजर पड़ी। ऐसा जान पड़ा मानों पानी में परछाई हो। उसके मुँह से एक चीख निकल पड़ी। बच्चे का माथा छूकर देखा। सारी देह ठंडी हो गयी थी।

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