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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


मुंशीजी– ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनियाँ उन पर चलने लगे, सारे काम बन्द हो जाएँ! मैंने इतने दिनों तक इनकी सेवा की। मेरी ही बदौलत ऐसे– २ चार– पाँच गाँव बढ़ गए। जब तक पंडित जी थे। मेरी नीयत का मान था। मुझे आँख में धूल डालने की जरूरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए, मगर मुसम्मात के एक बीड़े पान की कसम खाता हूँ। मेरी जात से उनकी हजारों रुपये मासिक की बचत होती थी। क्या उनकों इतनी समझ भी न थी कि यह बेचारा जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए? हक कहकर न दो, इनाम कहकर दो, किसी तरह तो दो। मगर वें तो समझती थीं कि मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल लिया है। मैंने आठ साल तक सब्र किया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहूँ। और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ?अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोड़ू? जमींदारी की लालसा लिए हुए क्यों मरूँ? जब तक जीऊँगा, खुद खाऊँगा, मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ाएँगे।

माता की आंखों में आँसू भर आए। बोली– बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं। तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारे बाल– बच्चे हैं। आग में हाथ न डालों!

बहू ने सास की ओर देखकर कहा– हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल– रोटी ही में मगन हैं।

मुंशीजी– अच्छी बात है, तुम लोग रोटी– दाल खाना, गजी– गाढ़ा पहनना, मुझे अब हलुवे– पूरी की इच्छा है।

माता– यह अधर्म मुझसे न देखा जायगा। मैं गंगा में डूब मरूँगी।

पत्नी– तुम्हें ये सब काँटे बोना हैं, तो मुझे मायके पहुँचा दो। मैं अपने बच्चों को लेकर इस घर में नहीं रहूँगी।

मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा– तुम लोगों की बुद्धि तो भाँग खा गई है। लाखों सरकारी नौकर रात– दिन दूसरो का गला दबा– दबाकर रिश्वतें लेते हैं। और चैन करते है। न उनके बाल– बच्चों को ही कुछ होता है, न उन्हीं को हैजा पकड़ता है। अधर्म उनको क्यों नहीं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा! मैंने तो सत्य– वादियों को सदा दुःख झेलते ही देखा है। मैंने जो कुछ किया है, उसका सुख लूँटूगा! तुम्हारे मन में जो आये, करो।

प्रातः काल दफ्तर खुला तो कागजात सब गायब थे। मुंशी छक्कनलाल बौखलाए– से घर में गये और मालकिन से पूछा– क्या कागजात आपने उठवा लिये है? भानुकुँवरि ने कहा मुझे क्या खबर! जहां आपने रखे होंगे, वहीं होंगे। फिर तो सारे घर में खलबली पड़ गई। पहरेदारों पर मार पड़ने लगी। भानुकुंवरि को तुरन्त मुंशी सत्यनारायण पर संदेह हुआ। मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की सहायता, के बिना यह काम होना असम्भव था। पुलिस में रपट हुई। एक ओझा नाम निकालने के लिए बुलाया गया। मौलवी साहब ने कुर्रा फेंका। ओझा ने नाम बताया किसी पुराने बैरी का काम है। मौलवी साहब ने फर्माया, किसी घर के भेदिये ने यह हरकत की है। शाम तक यही दौड़– धूप रही। फिर यह सलाह होने लगी इन कागजात के बगैर मुकदमा कैसे चलेगा? पक्ष तो पहले ही निर्बल था। जो कुछ बल था, वह इसी बहीखाते का था। अब तो वे सबूत भी हाथ से गये। दावे में कुछ जान ही नहीं रही। मगर भानुकुंवरि ने कहा– बला से हार जायेंगे। हमारी चीज कोई छीन ले तो हमारा धर्म है कि उससे यथाशक्ति लड़ें। हारकर बैठे रहना कायरों का काम है। सेठजी (वकील) को इस दुर्घटना का समाचार मिला, तो उन्होंने भी यही कहा कि अब दावे में जरा भी जान नहीं है। केवल अनुमान और तर्क का भरोसा है। अदालत ने माना तो माना, नहीं तो हार माननी पड़ेगी। पर भानुकुंवरि ने एक न मानी। लखनऊ और इलाहाबाद से दो होशियार बैरिस्टर बुलवाए। मुकदमा शुरू हो गया।

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