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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


एक द्वेषी ने कहा– कहीं गड़ा हुआ धन पा गया है। इस पर चारों ओर से उस पर बौछारें पड़ने लगीं– हाँ तुम्हारे बाप– दादा जो खजाना छोड़ गए थे, वही हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम भी छाती फड़ाकर काम करते हो; क्यों ऐसी ऊख नहीं लगती, क्यों ऐसी फसल नहीं होती? भगवान आदमी का दिल देखते हैं, जो खर्च करना जानता है, उसी को देते हैं।

सुजान महतो सुजान भगत हो गए। भगतों के आचार– विचार कुछ और भी होते हैं। यह बिना स्नान किए कुछ नहीं खाता। गंगाजी अगर घर से दूर हों और रोज स्नान करके दोपहर तक घर न लौट सकता हो, तो पर्वो के दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए। भजन– भाव उसके घर अवश्य होना चाहिए। पूजा– अर्चा उसके लिए अनिवार्य है। खान– पान में भी उसे बहुत विचार रखना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि झूठ का त्याग करना पड़ता है। भगत झूठ नहीं बोल सकता। साधारण मनुष्य को अगर झूठ का दंड एक मिले तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकता।

अज्ञान की अवस्था में कितने ही अपराध क्षम्य हो जाते है। ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं है, प्रायश्चित नहीं है, या तो बहुत ही कठिन। सुजान को भी अब भगतों की मर्यादा को निभाना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था। उसका कोई आदर्श, कोई मर्यादा उसके सामने न थी। अब उसके जीवन में विचार का उदय हुआ, जहाँ का मार्ग काँटों से भरा हुआ है। स्वार्थ– सेवा ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य थी, इसी काँटे से वह परिस्थितियों को तौलता था। वह अब उन्हें औचित्य के काँटों पर तौलने लगा। यों कहो कि जड़– जगत से निकलकर उसने चेतन– जगत में प्रवेश किया।

उसने कुछ लेन– देन करना शुरू किया था; पर अब उसे ब्याज लेते हुए आत्मग्लानि– सी हो रही थी। यहाँ तक कि गउओं को दुहते समय उसे बछड़ों का ध्यान रहता था– कहीं बछड़ा भूखा न रह जाए, नहीं उसका रोआँ दुखी होगा! वह गाँव का मुखिया था कितने ही मुकदमों में उसने झूठी शहादतें बनवायी थीं, कितनों से डाँड़ लेकर मामला रफा– दफा करा दिया था। अब इन व्यापारों से उसे घृणा होती थी। छूठ और प्रपंच से कोसों भागता था।

पहले उसकी यह चेष्ठा होती थी कि मजूरों से जितना काम लिया जा सके लो और मजूरी जितनी कम दी जा सके दो; पर अब उसे मजूरों के काम की कम, मजूरी की अधिक चिन्ता रहती थी– कहीं बेचारे मजूर का रोआँ न दुखी हो जाए। यह उसका सखुनत किया– सा हो गया– किसी का रोआँ न दुखी हो जाए। उसके दोनों जवान बेटे बात– बात में उस पर फब्तियाँ कसते, यहाँ तक कि बुलाकी भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी, जिसे घर के भले– बुरे से कोई प्रयोजन न था। चेतन– जगत में आकर सुजान कोरे भगत रह गए।

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