सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह) सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ
उस दिन से सत्यप्रकाश के स्वभाव में एक परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह घर में बहुत कम आता। पिता आते, तो उनसे मुँह छिपाता फिरता। कोई खाना खाने को बुलाता तो चोरों की भाँति दबकता हुआ जाकर खा लेता; न कुछ माँगता, न कुछ बोलता। पहले अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि था। उसकी सफाई सलीके और फुरती पर लोग मुग्ध हो जाते थे। अब वह पढ़ने से जी चुराता मैले– कुचैले कपड़े पहने रहता। घर में कोई प्रेम करने वाला न था! बाजार के लड़कों के साथ गली– गली घूमता, कनकौवे लूटता। गालियाँ बकना भी सीख गया। शरीर दुर्बल हो गया। चेहरे की कांति गायब हो गई। देवप्रकाश को अब आये दिन उसकी शरारतों के उलाहने मिलने लगे, और सत्प्रकाश नित्य घुड़कियाँ और तमाचे खाने लगा। यहाँ तक कि अगर वह कभी घर में किसी काम से चला जाए, तो सब लोग दूर– दूर कहकर दौड़ते।
ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए मास्टर आता था। देवप्रकाश उसे रोज सैर कराने साथ ले जाते। हँसमुख लड़का था। देवप्रिया उसे सत्यप्रकाश के साये से बचाती रहती थी। दोनों लड़कों में कितना अंतर था! एक साफ– सुथरा सुंदर कपड़े पहने, शील और विनय का पुतला; सच बोलने वाला, देखने वालों के मुख से अनायास ही दुआ निकल आती थी। दूसरा मैला, नटखट, चोरों की तरह मुँह छिपाए हुए मुँहफट बात– बात पर गालियाँ बकने वाला। एक हरा– भरा पौधा, प्रेम में प्लावित, स्नेह से संचित, दूसरा सूखा हुआ, टेढ़ा, पल्लव– हीन नव वृक्ष, जिसकी जड़ों को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देखकर पिता की छाती ठंडी होती; दूसरे को देखकर देह में आग लग जाती।
आश्चर्य यह था कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेशमात्र भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह ज्ञानप्रकाश के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही हरियाली थी। ईर्ष्या साम्य की भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से ही कही ऊँचा, कहीं भाग्यशाली समझता। उसमें ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था।
घृणा से घृणा उत्पन्न होती है, प्रेम से प्रेम, ज्ञानप्रकाश भी बड़े भाई को चाहता था। कभी– कभी पक्ष लेकर अपनी माँ से वाद– विवाद कर बैठता। कहता, भैया की अचकन फट गई है; आप नई अचकन क्यों नहीं बनवा देतीं? माँ उत्तर देती– उसके लिए वही अचकन अच्छी है। अभी क्या, अभी तो वह नंगा घूमेगा।
ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था कि अपने जेब– खर्च से बचाकर कुछ अपने भाई को दे, पर सत्य्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शांतिमय आनंद का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिए वह सद्भावों के साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दी और अप्रिय बात न निकलती। एक– क्षण के लिए उसकी सोयी हुई आत्मा जाग उठती।
एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने कहा– तुम आजकल पढ़ने क्यों नहीं जाते? क्या सोच रखा है कि मैंने तुम्हारी जिन्दगी– भर का ठेका ले रखा है?
सत्यप्रकाश– मेरे ऊपर जुर्माना और फीस के कई रुपये हो गए हैं। जाता हूँ, तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।
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