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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


सत्यप्रकाश– जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है, वे बचपन में ही अनाथ हो जाते हैं।

देवप्रिया– ये जली– कटी बातें अब मुझसे न सही जायँगी। मैं खून का घूँट पी पीकर रह जाती हूँ।

देवप्रकाश– बेहया है! कल से इसका नाम कटवा दूँगा। भीख माँगनी है, तो भीख ही माँगे।

दूसरे दिन सत्यपकाश ने घर से निकलने की तैयारी कर दी। उसकी उम्र अब १६ साल की हो गई थी। इतनी बातें सुनने के बाद उसे उस घर में रहना असह्य हो गया था। जब तक हाथ पाँव न थे, किशोरावस्था की असमर्थता थी, तब तक अवहेलना, निरादर, निठुरता, भर्त्सना सब कुछ सहकर घर में रहता रहा। अब हाथ पाँव हो गए थे, उस बंधन में क्यों रहता! आत्माभिमान आशा की भाँति चिरजीवी होता है।

गर्मी के दिन थे। दोपहर का समय। घर के सब प्राणी सो रहे थे। सत्य प्रकाश ने अपनी धोती बगल में दबायी, एक छोटा– सा बैग हाथ में लिया, और चाहता था कि चुपके– से बैठक से निकल जाय कि ज्ञान आ गया और उसे जाने को तैयार देखकर बोला– कहाँ जाते हो, भैया!

सत्यप्रकाश– जाता हूँ कहीं नौकरी करूँगा।

ज्ञानप्रकाश– मैं जाकर अम्माँ से कहे देता हूँ।

सत्यप्रकाश– तो फिर मैं तुमसे भी छिपकर चला जाऊँगा।

ज्ञानप्रकाश– क्यों चले जाओगे? तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत नहीं?

सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगाकर कहा– तुम्हें छोड़कर जाने को जी तो नहीं चाहता, लेकिन जहाँ कोई पूछने वाला नहीं, वहाँ पड़े रहना बेहयाई है। कहीं दस– पाँच की नौकरी कर लूंगा और पेट पालता रहूँगा, और किस लायक हूँ?

ज्ञानप्रकाश– तुमसे अम्माँ क्यों इतनी चिढ़ती हैं? मुझे तुमसे मिलने को मना किया करती हैं।

सत्यप्रकाश– मेरे नसीब खोटे हैं, और क्या!

ज्ञानप्रकाश– तुम लिखने पढ़ने में जी नहीं लगाते!

सत्यप्रकाश– लगता ही नहीं, कैसे लगाँऊ! जब कोई परवा नहीं करता तो मैं भी सोचता हूँ– ऊँह, यही न होगा, ठोकर खाऊँगा। बला से!

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