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सामाजिक कहानियाँ >> सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


ज्ञानप्रकाश– मुझे भूल तो न जाओगे? मैं तुम्हारे पास खत लिखा करूँगा। मुझे भी एक बार अपने यहाँ बुलाना।

सत्यप्रकाश– तुम्हारे स्कूल से पते से चिट्टी लिखूँगा।

ज्ञानप्रकाश– (रोते– रोते) मुझे न जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है।

सत्यप्रकाश– मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा!

यह कहकर उसने फिर भाई को गले लगाया, और घर से निकल पड़ा। पास एक कौड़ी भी न थी, और वह कलकत्ते जा रहा था।

सत्यप्रकाश कलकत्ते क्योंकर पहुँचा, इसका वृत्तांत लिखना व्यर्थ है। युवकों में दुस्साहस की मात्रा अधिक होती है। हवा में किले बना सकते हैं– धरती पर नाव चला करते हैं। कठिनाइयों की उन्हें कुछ परवा नहीं होती। अपने ऊपर असीम विश्वास होता है। कलकत्ते पहुँचना ऐसा कष्टसाध्य न था। सत्यप्रकाश चतुर युवक था। पहले ही निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा, कहाँ रहूँगा। उसके बैग में लिखने की सामग्री थी बड़े शहरों में जीविका का प्रश्न कठिन भी है उनके लिए, जो कलम से काम करते हैं। सत्यप्रकाश मजदूरी करना नीच समझता था। उसने एक धर्मशाला में असबाब रखा। बाद में शहर में मुख्य– मुख्य स्थानों का निरीक्षण कर एक डाक– घर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया, और अपढ़ मजदूरों की चिट्ठियाँ, मनी– आर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा।

पहले तो कई दिन उसको इतने पैसे भी न मिले कि भर– पेट भोजन करता, लेकिन धीरे– धीरे आमदनी बढ़ने लगी। वह मजदूरों से इतने विनय के साथ बातें करता, और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता कि वे पत्र को सुनकर बहुत प्रसन्न होते। अशिक्षित लोग एक ही बात को दो– दो, तीन– तीन, बार लिखते हैं। उनकी दशा ठीक रोगियों की– सी होती है, जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृतांत कहते नहीं थकते। सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप देकर मजदूरों को मुग्ध कर देता था। एक संतुष्ट होकर जाता, तो अपने कई अन्य भाईयों को खोज लाता। एक ही महीने में उसे एक रु. रोज मिलने लगा। उसने धर्मशाला से निकलकर शहर से बाहर पाँच रु. महीने पर एक छोटी सी कोठरी ले ली। एक जून बनाता दोनों जून खाता। बरतन अपने हाथों धोता। ज़मीन पर सोता। उसे अपने निर्वासन पर जरा भी खेद और दुःख न था। घर के लोगों की कभी याद न आती। वह अपनी दशा पर संतुष्ट था। केवल ज्ञानप्रकाश की प्रेमयुक्त बातें न भूलतीं। अंधकार में यही एक प्रकाश था। बिदाई का अंतिम दृश्य आँखों के सामने फिरा करता। जीविका से निश्चिंत होकर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा। उत्तर आया। उसके आनंद की सीमा न रही। ज्ञानू मुझे याद करके रोता है, मेरे पास आना चाहता है स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है। प्यासे को पानी से जो तृप्ति होती है, यही तृप्ति इस पत्र से सत्यप्रकाश को हुई। मैं अकैला नहीं हूँ कोई मुझे भी चाहता है। मुझे भी याद करता है।

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