उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
गंगाजली– मुझे साहब के पास क्यों नहीं ले चलते? उन्हें एक अबला पर अवश्य दया आएगी।
कृष्णचन्द्र– सुनो, यह रोने-धोने का समय नहीं है। मैं कानून के पंजे में फंसा हूं और किसी तरह नहीं बच सकता। धैर्य से काम लो। परमात्मा की इच्छा होगी तो फिर भेंट होगी।
यह कहकर वह बाहर की ओर चले कि दोनो लड़कियां आकर उनके पैरों से चिमट गईं। गंगाजली ने हाथों से उनकी कमर पकड़ ली और तीनों चिल्लाकर रोने लगीं।
कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए। उन्होंने सोचा, इन अबलाओं की क्या गति होगी? परमात्मन्, तुम दीनों के रक्षक हो, इनकी भी रक्षा करना।
एक क्षण में वह अपने को छुड़ाकर बाहर चले गए। गंगाजली ने उन्हें पकड़ने को हाथ फैलाए, पर उसके दोनों हाथ फैले ही रह गए, जैसे गोली खाकर गिरने वाली किसी चिड़िया के दोनों पंख रह जाते हैं!
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कृष्णचन्द्र अपने कस्बे में सर्वप्रिय थे। यह खबर फैलते ही सारी बस्ती में हलचल मच गई। कई भले आदमी उनकी जमानत कराने आए, लेकिन साहब ने जमानत नहीं ली।
इसके एक सप्ताह बाद कृष्णचन्द्र पर रिश्वत लेने का अभियोग चलाया गया। महंत रामदास भी गिरफ्तार हुए।
दोनों मुकदमें महीने-भर तक चलते रहे। हाकिम ने उन्हें दौरे सुपुर्द कर दिया।
वहां भी एक महीना लगा। अंत में कृष्णचन्द्र को पांच वर्ष की कैद हुई। महंत जी सात वर्ष के लिए गए और दोनों चेलों को काले पानी का दंड मिला।
गंगाजली के एक सगे भाई पंडित उमानाथ थे। कृष्णचन्द्र की उनसे जरा भी न बनती थी। वह उन्हें धूर्त्त और पाखंडी कहा करते, उनके लंबे तिलक की चुटकी लेते। इसलिए उमानाथ उनके यहां बहुत कम आते थे।
लेकिन इस दुर्घटना का समाचार पाकर उमानाथ से न रहा गया। वह आकर अपनी बहन और भांजियों को अपने घर ले गए। कृष्णचन्द्र के कोई सगा भाई न था। चाचा के दो लड़के थे, पर वह अलग रहते थे। उन्होंने बात तक न पूछी।
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