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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


और तो और; शान्ता को भी अब अपने पिता के सामने आते हुए भय और संकोच होता था। गांव की स्त्रियां जब जाह्नवी से कृष्णचन्द्र की करतूतों की निंदा करने लगतीं, तो शान्ता को अत्यन्त दुःख होता था। उसकी समझ में न आता था कि पिताजी को क्या हो गया है। वह कैसे गंभीर, कैसे विचारशील, कैसे दयाशील, कैसे सच्चरित्र मनुष्य थे। यह कायापलट कैसे हो गई? शरीर तो वही है, पर आत्मा कहां गई?

इस तरह एक मास बीत गया। उमानाथ मन में झुंझलाते कि इन्हीं की लड़की का विवाह होने वाला है और ये ऐसे निश्चिंत बैठे हैं, तो मुझी को क्या पड़ी है कि व्यर्थ हैरानी में पड़ूं। यह तो नहीं होता कि जाकर कहीं चार पैसे कमाने का उपाय करें, उल्टे अपने साथ-साथ मुझे भी खराब कर रहे हैं।

२९

एक रोज उमानाथ ने कृष्णचन्द्र के सहचरों को धमकाकर कहा– अब तुमलोगों को उनके साथ बैठकर चरस पीते देखा तो तुम्हारी कुशल नहीं। एक-एक की बुरी तरह खबर लूंगा। उमानाथ का रोब सारे गांव पर छाया हुआ था। वे सब-के-सब डर गए। दूसरे दिन जब कृष्णचन्द्र उनके पास गए तो उन्होंने कहा– महाराज, आप यहां न आया कीजिए। हमें पंडित उमानाथ के कोप में न डालिए। कहीं कोई मामला खड़ा कर दें, तो हम बिना मारे ही मर जाएं।

कृष्णचन्द्र क्रोध में भरे हुए उमानाथ के पास आए और बोले– मालूम होता है, तुम्हें मेरा यहां रहना अखरने लगा।

उमानाथ– आपका घर है, आप जब तक चाहें रहें, पर मैं यह चाहता हूं कि नीच आदमियों के साथ बैठकर आप मेरी और अपनी मर्यादा को भंग न करें।

कृष्णचन्द्र– तो किसके साथ बैठूं? यहां जितने भले आदमी हैं, उनमें कौन मेरे साथ बैठना चाहता है? सब-के-सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते हैं। यह मेरे लिए असह्य है। तुम इनमे से किसी को बता सकते हो, जो पूर्ण धर्म का अवतार हो? सब-के-सब दगाबाज, दीन किसानों का रक्त चूसने वाले व्यभिचारी हैं। मैं अपने को उनसे नीच नहीं समझता। मैं अपने किए का फल भोग आया हूं, वे अभी तक बचे हुए हैं, मुझमें और उनमें केवल इतना ही फर्क है। वह एक पाप को छिपाने के लिए और भी कितने पाप किया करते हैं। इस विचार से वह मुझसे बड़े पातकी हैं। बगुलाभक्तों के सामने मैं दीन बनकर नहीं जा सकता। मैं उनके साथ बैठता हूं, जो इस अवस्था में भी मेरा आदर करते हैं, जो अपने को मुझसे श्रेष्ठ नहीं समझते, जो कौए होकर हंस बनने की चेष्टा नहीं करते। अगर मेरे इस व्यवहार से तुम्हारी इज्जत को बट्टा लगता है, तो मैं जबर्दस्ती तुम्हारे घर में नहीं रहना चाहता।

उमानाथ– मेरा ईश्वर साक्षी है, मैंने इस नीयत से उन आदमियों को आपके साथ बैठने से नहीं मना किया था। आप जानते हैं कि मेरी सरकारी अधिकारियों से प्रायः संसर्ग रहता है। आपके इस व्यवहार से मुझे उनके सामने आंखें नीची करनी पड़ती हैं।

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