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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कृष्णचन्द्र– तो तुम उन अधिकारियों से कह दो कि कृष्णचन्द्र कितना ही गया-गुजरा है, तो भी उनसे अच्छा है। मैं भी कभी अधिकारी रहा हूं और अधिकारियों के आचार-व्यवहार का कुछ ज्ञान रखता हूं। वे सब चोर हैं। कमीने, चोर, पापी और अधर्मियों का उपदेश कृष्णचन्द्र नहीं लेना चाहता।

उमानाथ– आपको अधिकारियों की कोई परवाह न हो, लेकिन मेरी तो जीविका उन्हीं की कृपा-दृष्टि पर निर्भर है। मैं उनकी कैसे उपेक्षा कर सकता हूं? आपने तो थानेदारी की है। क्या आप नहीं जानते कि यहां का थानेदार आपकी निगरानी करता है? वह आपको दुर्जनों के संग देखेगा, तो अवश्य इसकी रिपोर्ट करेगा और आपके साथ मेरा भी सर्वनाश हो जाएगा। ये लोग किसके मित्र होते हैं?

कृष्णचन्द्र– यहां का थानेदार कौन है?

उमानाथ– सैयद मसऊद आलम।

कृष्णचन्द्र– अच्छा, वही धूर्त सारे जमाने का बेईमान, छटा हुआ बदमाश वह मेरे सामने हेड कांस्टेबिल रह चुका है और एक बार मैंने ही उसे जेल से बचाया था। अब की उसे यहां आने दो, ऐसी खबर लूं कि वह भी याद करे।

उमानाथ– अगर आपको यह उपद्रव करना है, तो कृपा करके मुझे अपने साथ न समेटिए। आपका तो कुछ न बिगड़ेगा, मैं पिस जाऊंगा।

कृष्णचन्द्र– इसीलिए कि तुम इज्जत वाले हो और मेरा कोई ठिकाना नहीं। मित्र, क्यों मुंह खुलवाते हो? धर्म का स्वांग भरकर क्यों डींग मारते हो? थानेदारों की दलाली करके भी तुम्हें इज्जत का घमंड है?

उमानाथ– मैं अधम पापी सही, पर आपके साथ मैंने जो सलूक किए, उन्हें देखते हुए आपके मुंह से ये बातें न निकलनी चाहिए।

कृष्णचन्द्र– तुमने मेरे साथ वह सलूक किया कि मेरा घर चौपट कर दिया। सलूक का नाम लेते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? तुम्हारे सलूक का बखान यहां अच्छी तरह सुन चुका। तुमने मेरी स्त्री को मारा, मेरी एक लड़की को न जाने किस लंपट के गले बांध दिया और दूसरी लड़की से मजदूरिन की तरह काम ले रहे हो। मूर्ख स्त्री को झांसा देकर मुकदमा के बहाने से खूब रुपए उड़ा दिए और तब अपने घर लाकर उसकी दुर्गति की। आज अपने सलूक की शेखी बघारते हो।

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