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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


हाजी हाशिम मुस्कुराए, अबुलवफा की आंखें खुशी से चमकने लगीं। अन्य महाशयों ने दार्शनिक मुस्कान के साथ यह हास्यपूर्ण वक्तृता सुनी, पर तेगअली इतने सहनशील न थे। तीव्र भाव से बोले– क्यों गरीब-परवर, अब की बोर्ड में यह तजवीज क्यों न पेश की जाए कि म्युनिसिपैलिटी ऐन चौक में खास एहतमाम के साथ मीनाबाजार आरास्ता करे और जो हजरत इस बाजार की सैर को तशरीफ ले जाएं, उन्हें गवर्नमेंट की जानिब से खुश नूदी मिजाज का परवाना अदा किया जाए? मेरे खयाल से इस तजवीज की ताईद करने वाले बहुत निकल आएंगे और इस तजवीज के मुहर्रिर का नाम हमेशा के लिए जिंदा हो जाएगा। उसकी वफात के बाद उसके मजार पर उर्स होंगे और वह अपने गोश-ए-लहद में पड़ा हुआ हुस्न की बहार लूटेगा और दलपजीर नगमे सुनेगा।

मुंशी अब्दुललतीफ का मुंह लाल हो गया। हाजी हाशिम ने देखा कि बात बढ़ी जाती है, तो बोले– मैं अब तक सुना करता था कि उसूल भी कोई चीज है, मगर आज मालूम हुआ कि वह महज एक वहम है। अभी बहुत दिन नहीं हुए कि आप ही लोग इस्लामी बजाएफ का डेपुटेशन लेकर गए थे, मुसलमान कैदियों के मजहबी तस्कीन की तजवीजें कर रहे थे और अगर मेरा हाफिजा गलती नहीं करता, तो आप ही लोग उन मौकों पर पेश नजर आते थे। मगर आज एकाएक इंकलाब नजर आता है। खैर, आपका तलब्वुन आपको मुबारक रहे। बंदा इतना सहलयकीन नहीं है। मैंने जिंदगी का यह उसूल बना लिया है कि बिरादराने वतन की हर एक तजवीज की मुखालिफत करूंगा, क्योंकि मुझे उससे किसी बेहबूदी की तबक्को नहीं है।

अबुलवफा ने कहा– आलिहाजा, मुझे रात को आफताब का यकीन हो सकता है, पर हिंदुओं की नेकनीयत पर यकीन नहीं हो सकता।

सैयद शफकत अली बोले– हाजी साहब, आपने हम लोगों को जमाना-साज और बेउसूल समझने में मतानत से काम नहीं लिया। हमारा उसूल जो तब था वह अब भी है और हमेशा रहेगा और वह है इस्लामी बकार को कायम करना और हर एक जायज तरीके से बिरादराने मिल्लत की बेहबूदी की कोशिश करना। अगर हमारे फायदे में बिरादराने वतन का नुकसान हो, तो हमको इसकी परवाह नहीं। मगर जिस तजवीज से उनके साथ हमको भी फायदा पहुंचता है और उनसे किसी तरह कम नहीं, उसकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है। हम मुखालिफत के लिए मुखालिफत नहीं कर सकते।

रात अधिक जा चुकी थी। सभा समाप्त हो गई। इस वार्तालाप का कोई विशेष फल न निकला। लोग मन में जो पक्ष स्थिर करके घर से आए थे, उसी पक्ष पर डटे रहे। हाजी हाशिम को अपनी विजय का जो पूर्ण विश्वास था, उसमें संदेह पड़ गया।

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