उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
361 पाठक हैं |
यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
स्थानीय कौंसिल में जब सूद का प्रस्ताव उपस्थित था, तो प्रभाकर राव ने उसका घोर विरोध किया था। चिम्मनलाल ने उसका उल्लेख करके और वर्तमान विषय को आर्थिक दृष्टिकोण से दिखाकर प्रभाकर राव को नियम विरुद्ध करने की चेष्टा की। प्रभाकर राव ने विवश नेत्रों से रुस्तमभाई की ओर देखा मानो उनसे कह रहे थे कि मुझे ये लोग ब्रह्मफांस में डाल रहे हैं, आप किसी तरह मेरा उद्धार कीजिए। रुस्तमभाई बड़े निर्भीक, स्पष्टवादी पुरुष थे। वे चिम्मनलाल का उत्तर देने के लिए खड़े हो गए और बोले– मुझे यह देखकर शोक हो रहा है कि आपलोग एक सामाजिक प्रश्न को हिंदू-मुसलमानों के विवाद का स्वरूप दे रहे हैं। सूद के प्रश्न को भी यही रंग देने की चेष्टा की गई थी। ऐसे राष्ट्रीय विषयों को विवादग्रस्त बनाने से कुछ हिंदू साहूकारों का भला हो जाता है, किंतु इसमें राष्ट्रीयता को जो चोट लगती है, उसका अनुमान करना कठिन है। इसमें संदेह नहीं कि इस प्रस्ताव के स्वीकृत होने से हिंदू साहूकारों को अधिक हानि पहुंचेगी, लेकिन मुसलमानों पर भी इसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। चौक और दालमंडी में मुसलमानों की दुकानें कम नहीं हैं। हमको प्रतिवाद या विरोध की धुन में अपने मुसलमान भाइयों की नीयत की सचाई पर संदेह न करना चाहिए। उन्होंने इस विषय पर जो कुछ निश्चय किया, वह सार्वजनिक उपकार के विचार से किया है; अगर हिंदुओं की इससे अधिक हानि हो रही है, तो यह दूसरी बात है। मुझे विश्वास है कि मुसलमानों की इससे अधिक हानि होती, तब भी उनका यही फैसला होता। अगर आप सच्चे हृदय से मानते हैं कि यह प्रस्ताव एक सामाजिक कुप्रथा के सुधार के लिए उठाया है, तो आपको उसे स्वीकार करने में कोई बाधा न होनी चाहिए, चाहे धन की कितनी ही हानि हो। आचरण के सामने धन का कोई महत्त्व न होना चाहिए।
प्रभाकर राव को धैर्य हुआ। बोला– बस, यही मैं कहने वाला था। अगर थोड़ी-सी आर्थिक हानि से एक कुप्रथा का सुधार हो रहा है, तो वह हानि प्रसन्नता से उठा लेनी चाहिए। आपलोग जानते हैं कि हमारी गवर्नमेंट को चीन से अफीम का व्यापार करने में कितना लाभ था। अठारह करोड़ से कुछ अधिक ही हो। पर चीन में अफीम खाने की कुप्रथा मिटाने के लिए सरकार ने इतनी भीषण हानि उठाने में जरा भी आगा-पीछा नहीं किया।
कुंवर अनिरुद्धसिंह ने प्रभाकर राव की ओर देखते हुए पूछा– महाशय,आप तो अपनी पत्रिका के संपादन में लीन रहते हैं, आपके पास जीवन के आनंद-लाभ के लिए समय ही कहां है? पर हम जैसे बेफ्रिकों को तो दिल बहलाव का कोई सामान चाहिए? संध्या का समय तो पोलो खेलने में कट जाता है, दोपहर का समय सोने में और प्रातःकाल अफसरों से भेंट-भांट करने या घोड़े दौड़ाने में व्यतीत हो जाता है। लेकिन संध्या से दस बजे रात तक बैठे-बैठे क्या करेंगे? आप आज यह प्रस्ताव लाए हैं कि वेश्याओं को शहर से निकाल दो, कल को आप कहेंगे कि म्युनिसिपैलिटी के अंदर कोई आज्ञा लिए बिना नाच, गाना, मुजरा न कराने पाए, तो फिर हमारा रहना कठिन हो जाएगा।
प्रभाकर राव मुस्कुराकर बोले– क्या पोलो और नाच-गाने के सिवा समय काटने का और कोई उपाय नहीं है? कुछ पढ़ा कीजिए।
कुंवर– पढ़ना हमलोगों को मना है। हमको किताब के कीड़े बनने की जरूरत नहीं। अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए जिन बातों की जरूरत है, उनकी शिक्षा हमको मिल चुकी है। हम फ्रांस और स्पेन का नाच जानते हैं, आपने उनका नाम भी न सुना होगा। प्यानो पर बैठा दीजिए, वह राग अलापूं कि मोजार्ट लज्जित हो जाए।
अंग्रेजी रीति-व्यवहार का हमको पूर्ण ज्ञान है। हम जानते हैं कि कौन-सा समय सोला हैट लगाने का है, कौन-सा पगड़ी का। हम किताबें भी पढ़ते हैं। आप हमारे कमरे में कई-कई आल्मारियां पुस्तकों से सजी हुई देखेंगे, मगर उन किताबों में चिमटते नहीं। आपके इस प्रस्ताव से हम तो मर मिटेंगे।
|