लोगों की राय

उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास)

सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

361 पाठक हैं

यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


कुंवर साहब की हास्य और व्यंग्य से भरी बातों ने दोनों पक्षों का समाधान कर दिया।

डॉक्टर श्यामाचरण ने कुंवर साहब की ओर देखकर कहा– मैं इस विषय में कौंसिल में प्रश्न करने वाला हूं। जब तक गवर्नमेंट उसका उत्तर दे, मैं अपना कोई विचार प्रकट नहीं करता।

यह कहकर डॉक्टर महोदय ने अपने प्रश्नों को पढ़कर सुनाया।

रेशमदत्त ने कहा– इन प्रश्नों को कदाचित् गवर्नमेंट कुछ उत्तर न देगी।

डॉक्टर– उत्तर मिले या न मिले, प्रश्न तो हो जाएंगे। इसके सिवा और हम कर ही क्या सकते हैं?

सेठ बलभद्रदास को विश्वास हो गया कि अब अवश्य हमारी विजय होगी। डॉक्टर साहब को छोड़कर सत्रह सम्मतियों में नौ उनके पक्ष में थीं। इसलिए अब वह निरपेक्ष रह सकते थे, जो सभापति का धर्म है। उन्होंने सारगर्भित वक्तृता देते हुए इस प्रस्ताव की मीमांसा की। उन्होंने कहा-सामाजिक विप्लव पर मेरा विश्वास नहीं है। मेरा विचार है कि समाज को जिस सुधार की आवश्यकता होती है, वह स्वयं कर लिया करता है। विदेश-यात्रा, जाति-पांति के भेद, खान-पान के निरर्थक बंधन सब-के-सब समय के प्रवाह के सामने सिर झुकाते चले जाते हैं। इस विषय में समाज को स्वच्छंद रखना चाहता हूं। जिस समय जनता एक स्वर से कहेगी कि हम वेश्याओं को चौक में नहीं देखना चाहते, तो संसार में ऐसी कौन-सी शक्ति है, जो उसकी बात को अनसुनी कर सके?

अंत में सेठजी ने बड़े भावपूर्ण स्वर में ये शब्द कहे– हमको अपने संगीत पर गर्व है। जो लोग इटली और फ्रांस के संगीत से परिचित हैं, वे भी भारतीय गान के भाव, रस और आनंदमय शांति के कायल हैं, किंतु काल की गति! वही संस्था जिसकी जड़ खोदने पर हमारे कुछ सुधारक तुले हुए हैं, इस पवित्र– इस स्वर्गीय धन की अध्यक्षिणी बनी हुई है। क्या आप इस संस्था का सर्वनाश करके अपने पूर्वजों के अमूल्य धन को इस निर्दयता से धूल में मिला देंगे? क्या आप जानते थे कि हममें आज जो जातीय और धार्मिक भाव शेष रह गए हैं, उनका श्रेय हमारे संगीत को है, नहीं तो आज राम, कृष्ण और शिव का कोई नाम भी न जानता! हमारे बड़े-से-बड़े शत्रु भी हमारे हृदय से जातीयता का भाव मिटाने के लिए इससे अच्छी और कोई चाल नहीं सोच सकता। मैं यह नहीं कहता कि वेश्याओं से समाज को हानि नहीं पहुंचती। कोई भी समझदार आदमी ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता। लेकिन रोग का निवारण मौन से नहीं, दवा से होता है। कोई कुप्रथा उपेक्षा या निर्दयता से नहीं मिटती। उसका नाश शिक्षा, ज्ञान और दया से होता है। स्वर्ग में पहुंचने के लिए कोई सीधा रास्ता नहीं है। वैतरणी का सामना अवश्य करना पड़ेगा। जो लोग समझते हैं कि वह किसी महात्मा के आशीर्वाद से कूदकर स्वर्ग में जा बैठेंगे, वह उनसे अधिक हास्यास्पद नहीं है, जो समझते हैं कि चौक से वेश्याओं को निकाल देने से भारत के सब दुःख-दारिद्रय मिट जाएंगे और चौक से नवीन सूर्य का उदय हो जाएगा।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book