उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
महफिल में खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी। \
महफिल में कन्या की ओर भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे– भैया, ये लोग क्यों बारात लौटाने पर उतारू हो रहे हैं? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया, तो वे सब-के-सब आकर मदनसिंह से विनती करने लगे– महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है? और जो दंड चाहे दीजिए, पर बारात न लौटाइए, नहीं तो गांव बदनाम हो जाएगा। मदनसिंह ने उनसे केवल इतना कहा– इसका कारण उमानाथ से पूछो, वही बतलाएंगे।
पंडित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनंद से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था। वह वर आने की राह देख रहे थे कि इतने में कई आदमियों ने आकर उन्हें खबर दी। उन्होंने पूछा– क्यों लौट जाते हैं? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?
लोगों ने कहा– हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वहीं खड़े मना रहे हैं।
कृष्णचन्द्र झल्लाए हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे-गुड्डी का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था, तो यहां बारात क्यों लाए? देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूंगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बातें करते, कदम बढ़ाते हुए जनवासे में पहुंचे और ललकारकर बोले– कहां हैं पंडित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइए।
मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आए और दृढ़ता के साथ बोले–
कहिए, क्या कहना है?
कृष्णचन्द्र– आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?
मदनसिंह– अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।
कृष्णचन्द्र– आपको विवाह करना होगा। यहां आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।
मदनसिंह– आपको जो करना हो, कीजिए। हम विवाह नहीं करेंगे।
कृष्णचन्द्र– कोई कारण?
मदनसिंह– कारण क्या आप नहीं जानते?
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