उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
मदनसिंह– अच्छा, तो सुनिए, मुझे दोष न दीजिएगा। आपकी लड़की सुमन जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आपका जी चाहे, तो उसे दालमंडी में देख आइए।
कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा– यह बिलकुल झूठ है। पर क्षणमात्र में उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था, तो उन्होंने टाल दिया था; कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया, जो जाह्नवी बात-बात में उन पर करती रहती थी। विश्वास हो गया और उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। दोनों तरफ के सैकड़ों आदमी वहां खड़े थे, लेकिन सब-के-सब सन्नाटे में आ गए। इस विषय में किसी का मुंह खोलने का साहस नहीं हुआ।
आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गए। उस बगीचे में अंधकार छा गया। गीदड़ों की सभा होने लगी और उल्लू बोलने लगे।
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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछ लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन सज्जनों की आश्रम पर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावों को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि विषयों से अद्भुत सहानुभूति हो गई थी। रात-दिन आश्रम की शुभकामना में मग्न रहते थे।
विट्ठलदास बड़े संकट में पड़े हुए थे। कभी विचार करते कि इस पद से इस्तीफा दे दूं। क्या मैंने ही इस आश्रम का जिम्मा लिया है? कमेटी में और कितने ही मनुष्य हैं, जो इस काम को संभाल सकते हैं। वह जैसा उचित समझेंगे, इसका प्रबंध करेंगे, मुझे अपनी आंखों से तो यह अत्याचार न देखना पड़ेगा। कभी सोचते, क्यों न एक दिन इन दुराचारियों को फटकारूं? फिर जो कुछ होगा, देखा जाएगा। लेकिन जब शांत चित्त होकर देखते, तो उन्हें सब्र से काम लेने के सिवा और कोई उपाय न सूझता। हां, उन लोगों से बड़ी रुखाई से बातचीत करते, उनके प्रस्तावों की उपेक्षा किया करते और अपने भावों से यह प्रकट करना चाहते थे कि मुझे तुम लोगों का यहां आना असह्य है। किंतु गरज के बावले मनुष्य देखकर भी अनदेखी कर जाते हैं। दोनों सेठ विनय और शील की साक्षात् मूर्ति बन जाते। तिवारीजी ऐसे सरल बन जाते, मानों उन्हें क्रोध आ ही नहीं सकता। इस कूटनीति के आगे विट्ठलदास की अक्ल कुछ काम न करती!
एक दिन प्रातःकाल विट्ठलदास इन्हीं चिंताओं में बैठे हुए थे कि एक फिटन आश्रम के द्वार पर आकर रुकी। उसमें से कौन लोग उतरे? अबुलवफा और अब्दुललतीफ।
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