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सेवासदन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :535
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8632
आईएसबीएन :978-1-61301-185

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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है


पद्मसिंह– नहीं साहब, वह स्वभाव की बुरी स्त्री नहीं है। मेरे यहां महीनों आती रही थी! मेरे घर में उसकी बड़ी प्रशंसा किया करती थीं (यह कहते-कहते झेंप गए)। कुछ ऐसे कुसंस्कार ही हो गए, जिन्होंने यह अभिनय कराए। सच पूछिए तो हमारे पापों का दंड उसे भोगना पड़ा। हां, कुछ उधर का समाचार भी मिला? सेठ बलभद्रदास ने और कोई चाल चली?

विट्ठलदास– हां साहब, वे चुप बैठने वाले आदमी नहीं हैं। आजकल खूब दौड़-धूप हो रही हैं। दो-तीन दिन हुए हिन्दू मेंबरों की एक सभा भी हुई थी। मैं तो जा न सका, पर विजय उन्हीं लोगों की रही। अब प्रधान को दो वोट मिलाकर उनके पास छह वोट हैं और हमारे पास कुल चार। हां, मुसलमानों के वोट मिलाकर बराबर हो जाएंगे।

पद्मसिंह– तो हमको कम-से-कम एक वोट और मिलना चाहिए। है इसकी कोई आशा?

विट्ठलदास– मुझे तो कोई आशा नहीं मालूम होती।

पद्मसिंह– अवकाश हो तो चलिए, जरा डॉक्टर साहब और लाला भगतराम के पास चलें।

विट्ठलदास– हां, चलिए, मैं तैयार हूं।

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यद्यपि डॉक्टर साहब का बंगला निकट ही था, पर इन दोनों आदमियों ने एक किराए की गाड़ी की। डॉक्टर साहब के यहां पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढ़ा-चढ़ाकर बयान किए और अपनी चतुराई को खूब दर्शाया।

पद्मसिंह ने यह सुनकर चिंतित भाव से कहा– तो अब हमको सतर्क होने की जरूरत है। अंत में आश्रम का सारा भार हमीं लोगों पर आ पड़ेगा। बलभद्र अभी चाहे चुप रह जाएं, लेकिन इसकी कसर कभी-न-कभी निकालेंगे अवश्य।

विट्ठलदास– मैं क्या करूं? मुझसे यह अत्याचार देखकर रहा नहीं जाता। शरीर में एक ज्वाला-सी उठने लगती है। कहने को ये लोग विद्वान, बुद्धिमान हैं, नीति-परायण हैं, पर उनके ऐसे कर्म? अगर मुझमें कौशल से काम लेने की सामर्थ्य होती, तो कम-से-कम बलभद्रदास से लड़ने की नौबत न आती।

पद्मसिंह– यह तो एक दिन होना ही था। यह भी मेरे ही कर्मों का फल है। देखूं, अभी और क्या-क्या गुल खिलते हैं? जब से बारात वापस आई है, मेरी विचित्र दशा हो गई है। न भूख, न प्यास, रात-भर करवटें बदला करता हूं। यही चिंता लगी रहती है कि उस अभागिनी कन्या का बेड़ा कैसे पार लगेगा। अगर कहीं आश्रम का भार सिर पर पड़ा, तो जान ही पर बन आएगी। ऐसे अथाह दलदल में फंस गया हूं कि ज्यों-ज्यों ऊपर उठना चाहता हूं और नीचे दब जाता हूं।

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