उपन्यास >> सेवासदन (उपन्यास) सेवासदन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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यह उपन्यास घनघोर दानवता के बीच कहीं मानवता का अनुसंधान करता है
दोनों थानेदार ये बातें सुनकर एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे, मानो कह रहे थे। कि यह आदमी पागल हो गया है क्या? अपने होश में नहीं मालूम होता। यदि ईमानदार ही बनना था, तो ऐसा काम ही क्यों किया? पाप किया, पर करना न जाना!
सुपरिंटेंडेंट ने कृष्णचन्द्र को दया की दृष्टि से देखा और भीतर जाने की आज्ञा दी।
गंगाजली बैठी चांदी के थाल में तिलक की सामग्री सजा रही थी कि कृष्णचन्द्र ने आकर कहा– गंगा, बात खुल गई। मैं हिरासत में आ गया।
गंगाजली ने उनकी ओर विस्मित भाव से देखा। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। आंखों से आंसू बहने लगे।
कृष्णचन्द्र– रोती क्यों हो? मेरे साथ कोई अन्याय नहीं हो रहा है। मैंने जो कुछ किया है, उसी का फल भोग रहा हूं। मुझ पर फौजदारी का मुकदमा चलाया जाएगा, तुम कुछ चिंता न करना। मैं सब कुछ सहने के लिए तैयार हूं। मेरे लिए वकील-मुख्तारों की जरूरत नहीं है। इसमें व्यर्थ रुपए न फूंकना। मेरे इस प्रायश्चित से वह पाप का धन पवित्र हो जाएगा। उसे तुम सुमन के विवाह में खर्च करना। उसका एक पैसा भी मुकदमें में न लगाना, नहीं तो मुझे दुःख होगा। अपनी आत्मा का, अपनी नेकनीयती का, अपने जीवन का सर्वनाश करने के बाद मुझे संतोष रहेगा कि मैं एक ऋण से मुक्त हो गया, एक लड़की का बेड़ा पार लगा दिया।
गंगाजली ने दोनों हाथों से अपना सिर पीट लिया। उसे अपनी अदूरदर्शिता पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि धरती फट जाए और वह उसमें समा जाए। शोक और आत्मवेदना की एक लहर बादल से निकलनेवाली धूप के सदृश उसके हृदय पर आती हुई मालूम हुई। उसने निराशा से आकाश की ओर देखा। हाय! यदि मैं जानती कि यह नौबत आएगी, तो अपनी लड़की किसी कंगाल से ब्याह देती, या उसे विष देकर मार डालती। फिर वह झटपट उठी, मानों नींद से चौंकी हो और कृष्णचन्द्र का हाथ पकड़कर बोली– इन रुपयों में आग लगा दो। उन्हें ले जाकर उसी हत्यारे रामदास के सिर पटक दो। मेरी लड़की बिना ब्याही रहेगी। हाय ईश्वर! मेरी मति क्यों मारी गई। मैं साहब के पास चलती हूं। अब लाज-शरम कैसी?
कृष्णचन्द्र– जो कुछ होना था, हो चुका, अब कुछ नहीं हो सकता।
गंगाजली– मुझे साहब के पास ले चलो। मैं उनके पैरों पर गिरूंगी और कहूंगी, यह आपके रुपए हैं, लीजिए, और जो कुछ दंड देना है, मुझे दीजिए मैं ही विष की गांठ हूं। यह पाप मैंने बोया है।
कृष्णचन्द्र– इतने जोर से न बोलो, बाहर आवाज जाती होगी।
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