धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
तो मैंने उनसे कहा, आदमी को रुपए नहीं मिलते, ऋषि-मुनि को मिलते हैं। और ऋषि-मुनि प्रपोगेंडा के बिना तैयार नहीं होता, उसको तैयार करना पड़ता है। उसकी हवा फैलानी पड़ती है, उसका प्रचार करना पड़ता है, उसको बताना पड़ता है कि ये महात्मा हैं, परम-ज्ञानी हैं, यह हैं, वह हैं। और जैसे लक्स टायलेट को बनाना पड़ता है, वैसे उसको बनाना पड़ता है।
प्रचार के इस खेल को, इस जाल को--समझदार आदमी को अपने चित्त से तोड़ देना चाहिए।
मार्क ट्वेन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं एक बहुत बड़े नगर में बोलने गया। कुछ मित्रों से गपशप करने में सांझ हो गई, बोलने का वक्त करीब आ गया और मैं उस दिन भूल ही गया दाढ़ी बनाना, तो मैं एक नाईबाड़े में गया। नाई दुकान बंद ही कर रहा था। मैंने उससे कहा कि भाई एक दो क्षण रुक जाओ, मेरी दाढ़ी बना दो। उसने कहा, क्षमा कीजिए, मैं मार्क ट्वेन का भाषण सुनने जा रहा हूँ। और मेरे मन में इतना आदर है उस व्यक्ति के लिए कि अब मैं एक क्षण भी यहाँ नहीं रुक सकता। अगर वहाँ देर से पहुँचा तो शायद हाल के बाहर ही खड़ा रहना पडे, या भीतर भी घुस जाऊं तो खड़ा रहना पड़े। मैं जल्दी ही जाना चाहता हूँ। आप क्षमा करें, आप कहीं और बाल बनवा लें।
मार्क ट्वेन ने कहा, ठीक ही कहते हो, यह मार्क ट्वेन का बच्चा जहाँ भी भाषण करता है, वहाँ जो लोग देर से पहुँचते हैं, उनको तो खड़ा रहना ही पड़ता है, लेकिन मुझे हमेशा ही खड़ा रहना पड़ता है। उसने कहा, मार्क ट्वेन का बच्चा। मार्क ट्वेन ने कहा, तो उस नाई को गुस्सा आ गया। उसने कालर पकड़ लिया। और उसने कहा, सम्हलकर बोलो। मार्क ट्वेन का मैं बहुत आदर करता हूँ, इस तरह नहीं बोल सकते हो।
मार्क ट्वेन ने लिखा है--कि मैं खुद ही मार्क ट्वेन हूँ, वह मेरा गला पकड़ लिया। लेकिन मार्क ट्वेन और ही बात है उसके मन में। वह एक प्रपोगेंडा और है, उससे इस आदमी का क्या संबंध?
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