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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

देखने वाली आँख होगी, तो दिखाई पड़ गया। नहीं तो सूखे पत्ते इस माथेरान में कितने नहीं हैं और आपके पैरों के नीचे कितने नहीं आकर कुचल जाते होंगे - और आपकी आंखों के सामने कितने नहीं वृक्षों से गिर जाते होंगे?

लेकिन सूखे पत्ते क्या करेंगे। अगर सूखे पत्ते कुछ करते होते तो बडी आसान बात थी। हम हर गांव में एक वृक्ष लगा लेते और उसमें से सूखे पत्ते टपकाते रहते, और गांव में जो भी निकलता ज्ञान को उपलब्ध हो जाता। नहीं, लेकिन सूखे पत्ते में हम तभी देख पाएंगे, जब हम देखने में समर्थ हैं।

एक युवक सत्य की खोज पर था। बहुत घूमा, बहुत भटका था। एक दिन कुएं से पानी भरकर आ रहा था। दोनों कंधे पर लकड़ी डालकर दो मटकियां बांधी हुई थीं। लकड़ी छूट गई, मटकी फूट गई, पानी बह गया। वह नाच उठा, लोगों ने उससे पीछे पूछा, तुम्हें क्या हो गया उसने कहा, मटकी क्या फूटी, मैं ही फूट गया। मटकी के फूटने के क्षण में मुझे दिखाई पडा, अरे। मटकी में जो पानी था, वह भी सागर का था, लेकिन मटकी रोके थी।

मटकी फूट गई, पानी वह गया और एक हो गया उससे, जिससे वह एक था। केवल बीच में एक मिट्टी की दीवाल थी। उसी दिन मेरे मन की मटकी फूट गई और अब तो मेरा भीतर जो है, वह उस सागर से मिल गया, जो सबका सागर है। अब मैं नहीं हूँ, अब परमात्मा ही है।

लेकिन मटकी फूटने से। घर में रोज मटकी फूट जाती है, घर-घर में मटकी फूटती रहती है। लेकिन किसी को यह नहीं दिखाई पड़ता। देखने वाली आँख चाहिए, तो कहीं भी दिखाई पड़ जाता है।

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