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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक वृद्ध, एक घर के द्वार से निकलता था। सुबह घूमने निकला था। उस वृद्ध का बचपन का नाम ही बुढ़ापे तक चलता आया था। उसे सभी लोग--बूढ़ा हो गया था तो भी राजा बाबू ही कहते थे। घूमने निकला था, एक झोपडे के भीतर--सूरज उग रहा था बाहर, कोई मां अपने बेटे को, या अपने देवर को, या किसी को उठाती होगी। और भीतर कह रही थी कि राजा बाबू उठो, कब तक सोए रहोगे- और यह राजा बाबू जो बाहर घूमने निकले थे, वे एकदम ठिठककर खड़े हो गए। उन्हें सुनाई पडा--राजा बाबू उठो, कब तक सोए रहोगे। वे वापस लौट पड़े।

घर आकर उन्होंने कहा, मैं दूसरा आदमी हो गया। अब राजा बाबू सोए नहीं रह सकते। मैं उठ गया। मुझे एक जगह बात सुनाई पड़ी और मैं बदल गया।

उस स्त्री को पता भी नहीं होगा कि बाहर भी कोई मौजूद था। उसे खयाल भी नहीं होगा कि उसने जो कहा था उसके राजा बाबू तो शायद सोए ही रहे होंगे, क्योकि राजा बाबू जिनको हम कहते हैं, वे जल्दी नहीं उठते। लेकिन बाहर एक आदमी जाग गया होगा, इसकी कल्पना भी नहीं थी। हम भी उस घर के सामने से निकल सकते हैं। घर-घर में औरतें राजा बाबुओं को उठाती रहती हैं, लेकिन हमको शायद ही वह बात सुनाई पड़े।

जीवन में तो सब कुछ है। आँख हमारे पास होनी चाहिए। वह आँख ध्यान से उपलब्ध होती है। ध्यान ही उस आँख का दूसरा नाम है। शांत क्षणों में, मौन क्षणों में, सायलेंस में वह आँख उपलब्ध होती है।

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