उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
धर्मसंकट
एक ओर जहाँ देव ने अपनी बुद्वि, सौम्य, सरल स्वभाव व मीठी वाणी से उग्र, आक्रामक व गुस्सैल स्वभाव वाली गंगा का प्रेम जीत लिया। वहीं दूसरी ओर देव ने गंगा के बेहद गंभीर व पुराने सोच वाले लेकिन दिल से साफ बाबू ‘गंगासागर हलवाई‘ के दिल में अपनी एक अच्छी छवि बना ली। पर जैसे-जैसे दिन गुजरते गये देव को बड़ी चिन्ता सी सताने लगी।
देव! जिसने अभी तक की अपनी जिन्दगी में कभी झूठ नहीं बोला था, कभी छल कपट नहीं किया था, कभी किसी को धोखा नहीं दिया था उस देव को गंगा के बाबू से सच्चाई छिपाना एक अपराध सा लगने लगा। मैंने महसूस किया....
देव ने फैसला किया कि अब वो गंगा के बाबू को सब कुछ सच-सच बता देगा कि देव कौन है? देव गंगा के अनपढ़ बाबू को इतना महत्व क्यों देता है? आखिर क्यों देव गंगा की दुकान पर हर रोज क्यों चला जाता है? देव ने फैसला कर लिया। मैंने जाना....
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अगला दिन। देव कालेज पहुँचा.....
‘‘संगीता! आज हम गंगा के बाबू को सब कुछ सच-सच बता देंगें‘‘ देव ने संगीता से विचार-विमर्श किया।
‘‘अब हम उन्हें और अँधेरे में नहीं रख सकते!‘‘ देव को अपराधबोध, आत्मग्लानि सी हो रही थी।
‘‘देव! अभी कुछ दिन और रूक जाओं, इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं!‘‘ संगीता से समझाते हुए कहा।
‘‘जैसे ही मुझे सही लगेगा मैं खुद गंगा से तुम्हारी शादी का प्रस्ताव लेकर गंगा के घर जाऊँगी! उसके अम्मा-बाबू से मैं खुद बात करूँगी!‘‘ संगीता ने विश्वास दिलाया।
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