उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘नहीं संगीता! अब चाहे जो भी हो! पर आज मैं गंगा के बाबू को सब कुछ सच-सच बता दूँगा फिर उसके बाद जो हो वो शिव जानें‘‘ देव ने संगीता का कहा नहीं माना। वो एक बार फिर पहुँचा रानीगंज गंगा की दुकान पर....
‘‘सब्जी पूड़ी?‘‘ गंगा के बाबू ने देव से पूछा।
अब तक गंगा का बाबू देव को अच्छी तरह से जान चुका था। अब देव के पहुँचते ही वो तुरन्त टेबल साफ करता था और तुरन्त देव को बैठने को कहता था। देव क्या-क्या चीजे खाता है अब गंगा के बाबू को भली-भाँति याद हो गया था।
‘‘हाँ!‘‘ देव से सिर हिलाया।
गंगा के बाबू जहाँ हमेशा अपने पुत्रहीन हाने वाले गम में डूबा रहता था, वहीं आज वो काफी अच्छे मूड में था। साथ ही जहाँ वो हमेशा बनियान और लुँगी पहनता था वही आज गंगा का बाबू क्रीम कलर का पैजामा-कुर्ता पहने हुए था। मैंने गौर किया....
उसने तुरन्त एक स्टील की प्याली उठायी, छोलों से भरा बड़ा सा ऐल्यूमिनियम का ढक्कन खोला और डेढ़ चम्मच छोला प्याली में डाला। छोले लाल-लाल गर्म-गर्म और मसालेदार थे।
फिर एक और स्टील की प्याली उठायी और पूडि़यों के ढेर से 5 पूडि़याँ उठायी और प्याली में रखी और देव को लाकर दीं।
फिर वो गया..... एक हरे रंग का प्लास्टिक का जग ‘जो काफी पुराना था‘ लिया, बाहर जाकर नल से पानी भरा.... और एक काँच का ग्लास उठाया और देव को लाकर दिया।
इतना ही नहीं गंगा के बाबू मतलब गंगासागर हलवाई ने देव के काँच वाले ग्लास में पानी भी भर दिया। पानी भरने में हवा के छोटे-छोटे बुलबुले उत्पन्न हुए जो धीरे-धीरे सतह पर आकर अदृश्य हो गये। काँच के ग्लास की तलहटी पर एक घंटी का चित्र उभरा हुआ था। ‘ब्लू बेल्स‘ देव ने पढ़ा घंटी वाले चित्र के नीचे।
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