उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
शायद ये उस कम्पनी का था जो इन छोटे काँच के ग्लास बनाती थी और उन्हें रानीगंज के गाँव के इस छोटे से बजार में सप्लाई करती थी। मैंने अन्दाजा लगाया....
फिर गंगा का बाबू लौट गया और फिर देव के पास आया। एक धुली साफ चम्मच देव की छोले वाली प्याली में रखी और साथ में डाले कटे हुए प्याज के कुछ टुकड़े बिना देव के माँगे। ‘‘चार लाल-लाल चोकोर आकार के कटे प्याज के टुकडे‘‘ मैंने गिना।
‘‘बेटवा! और कुछ चाही?‘‘ गंगा के बाबू से पूछा बड़े प्यार से जैसा अब वो हमेशा करता था। अब वो हमेशा देव को ‘बेटवा! बेटवा!‘ कहकर पुकारता था। मैंने जाना....
पर ये क्या? अपना सेन्टीमेंटल हीरो तो और भी उदास हो गया गंगा के बाबू के इस अच्छे व्यवहार पर।
‘‘नहीं!‘‘ देव ने न में सिर हिलाया। गंगा का बाबू लौट गया और अपने काम में व्यस्त हो गया।
देव की आँखें भर आईं.....
‘‘बाबू!‘‘ देव ने गंगा के बाबू की ओर देखा.... जो अपनी भट्टी पर खड़ा था और अपने काम में व्यस्त था।
‘‘आज तो आपने हमें प्रसन्न कर दिया, हमारा दिल जीत लिया आपने!
बताइये क्या वर माँगते है?‘‘ देव ने पूछा गंगा के बाबू से मन ही मन।
‘‘...आज हमसे हमारी जान भी माँग लो तो भी हम दे दे खुशी-खुशी।
सच में! कसम से! भगवान कसम! शिव की कसम जिसकी हम पूजा करते हैं!‘‘ देव ने कहा गंगा के बाबू से मन ही मन।
|