उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘बाबू! ये कैसा धर्मसंकट है? एक तरफ हम आपका ही खाना खा रहे है वहीं दूसरी तरफ आपको की धोखा दे रहे है सच्चाई छुपाकर‘‘ देव को अचानक से बड़ी आत्मग्लानि सी होने लगी। देव अपने आपको अपराधी समझने लगा।
‘‘.....पर बाबू संगीता कहती है प्यार और जंग में सब कुछ जायज होता है! इसलिए आज जो सच न बताने की गल्ती हम कर रहे है उसके लिए भगवान हमें माफ कर देगा!‘‘ देव बोला मन ही मन गंगा के बाबू से।
तभी गंगा के बाबू ने देखा कि देव की सब्जी-पूड़ी खत्म हो गयी है...
‘‘चाय लाई?‘‘ गंगा के बाबू ने पूछा एक बार फिर से देव से जैसा अब वो हमेशा करता।
‘‘हाँ!‘‘ देव ने एक बार फिर से हाँ में सिर हिलाया।
चाय भी आ गई।
‘‘बाबू! अगर तुम्हारी भवानी से प्रीत न होती! प्यार न होता तो हम कभी यहाँ इतना दूर न आते और न ही कभी आपके हाथ की चाय पीने को मिलती!‘‘ देव ने गंगा के बाबू से अपना संवाद जारी रखा।
इसी दौरान भावुक हो उठे देव की आँखों से आँसू की एक बूँद निकली और टप्प! से चाय में जाकर गिरी। मीठी चाय भी नमकीन-नमकीन सी हो गयी। मैंने पाया...
फिर देव ने किसी तरह अपने आप को संभाला, अपने आप को मजबूत किया। देव अब दृढ़ हो गया....
‘‘बाबू! हमने धर्मपरिवर्तन कर लिया! हमने अपनी जात बदल ली! अब हम भी हो गये आपकी तरह एक हलवाई!‘‘ देव ने बड़ा गंभीर होकर कहा गंगा के बाबू की ओर देखते हुए।
‘‘....तुम्हारी लड़ाका में हमें अपना भगवान दिखता है इसलिए आज से हमने आपको भी अपना भगवान माना!‘‘ देव ने निश्चय किया।
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