उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘...अब सर्दी की रजाई की तरह हमें आप गले से लगा लो या घर के कूडे की तरह हमें बाहर फेंक दो! ये फैसला हमने आप पर छोड़ा!‘‘ देव ने कहा गंगा के बाबू से मन ही मन लेकिन गंभीरतापूर्वक।
‘‘बाबू! ऐसा नहीं होगा आज हम तुम्हारी गंगा से मिले तो उससे प्यार हो गया और कल को हमें कोई और.. गंगा से अधिक सुन्दर मिली तो उससे प्यार हो गया‘‘
‘‘बाबू! हमें जो प्यार तुम्हारी भवानी से हुआ है वो आजकल के जमाने का कोई दो-चार दिनों वाला कोई इश्क-विश्क नहीं है!‘‘ देव ने असली बात बताई।
‘‘...ये तो प्यार है! ये तो प्रेम है जैसा राम का सीता से प्रेम! कृष्ण का राधा से प्रेम, जैसे शंकर का पार्वती से प्रेम.. ये आपको समझना होगा!‘‘ देव ने जोर देकर कहा।
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‘‘बाबू! ये प्रेम तो ईश्वरीय है! खुद भगवान की देन है! इसका रिमोट कन्टोल तो ऊपर वाले के हाथ में है‘‘ देव ने विस्तार से पूरी बात बता दी।
‘‘बाबू! जल्द ही संगीता आएगी और आपको सबकुछ सच-सच बता देगी‘‘
‘‘संगीता आपसे हमारी और गंगा की शादी की बात करेगी!‘‘
अब देव कुछ अच्छा महसूस करने लगा। कुछ समय पहले देव को जो अपराध बोध हो रहा था, अब वो समाप्त हो गया। मैंने महसूस किया....
आज.... जबकि देव ने ये सोच लिया था कि वो गंगा के बाबू को सबकुछ बता देगा, उसने नहीं बताया और खुद को रोक लिया।
चाय जो अब तक बिल्कुल पानी की तरह ठण्डी को चुकी थी... देव ने एक ही घूँट में पी ली। देव ने गंगा के बाबू के हाथ में पैसे थमाऐ और दुकान से प्रस्थान किया। मैंने देखा....
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