उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
|
7 पाठकों को प्रिय 184 पाठक हैं |
आज…. प्रेम किया है हमने….
गायत्री का गुस्सा
छुट्टियाँ खत्म हुई। देव गायत्री से मिला और उसे सारी बात बतायी। गायत्री ने सारा मामला ध्यान से सुना।
अगला दिन। गायत्री आई। पर...
‘‘मर गई गंगा!‘‘ गायत्री चिल्लाकर बोली। वो बहुत बिगड़ी हुई थी पता नहीं किस बात पर।
‘ये गायत्री को क्या हुआ?’ मैंने सोचा....
‘‘नाम मत ले लेना उस ....चुड़ैल का मेरे सामने, वरना मुझसे बुरा कोई न होगा देव!‘‘ गायत्री तमतमाकर बोली गुस्से में बिल्कुल लाल-लाल होकर। जैसे उसके शरीर का सारा खून उसके चेहरे पर आ गया हो।
साल के तीन सौ पैसठ दिन शाँत मुद्रा में रहने वाली गायत्री भी आज काली वाले अवतार में आ गयी थी। मैनें साफ-साफ देखा।
‘‘वो लड़की राक्षस वरण है देव!‘‘
‘‘कोई आसुरीय प्रवृति वाली लड़की है! शायद दानवों के वंश से है‘‘
‘‘कहाँ तुम उसके चक्कर में पड़े हो?‘‘ गायत्री तेज आवाज में चिल्लाकर बोली।
‘‘वो कोई बिगड़ी हुई आत्मा है..... जो तुम्हारे लायक नहीं बिल्कुल भी!‘‘
वो घमण्डी, बेपरवाह, जिद्दी, अकड़ूं, अड़ियल, लड़की है देव! ....वो तुम्हारे लायक नहीं बिल्कुल भी!‘‘ गायत्री ने अपनी बात दोहराई।
ये पहली मर्तबा था जब सीधी-साधी गायत्री सीधे-साधे देव पर चिल्लाकर ऊँची आवाज में बोल रही थी। मैंने गौर किया....
|