उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
देव कुछ न बोला। वो गायत्री को चुपचाप सुनता ही रहा।
‘‘देव!.... वो हलवाइयों की लड़की है! उसने तो सारी जिन्दगी सिर्फ आलू-प्याज काटना ही सीखा है! ...बस! समोसे और मिठाइयाँ बनाना ही सीखा!‘‘ गायत्री चिल्लाकर बोली।
‘‘प्यार क्या होता है? प्रेम क्या होता है वो क्या समझे?‘‘
‘‘वो क्या जाने दिल की भावनाऐं क्या होती हैं?
‘‘मुझे तो समझ नहीं आता है कि आखिर कौन सा गुण देखकर तुम्हें उससे प्यार हो गया?‘‘ गायत्री ने हेय दृष्टि से कहा अफसोस जताते हुए जैसे देव से कोई गंभीर अपराध हो गया हो। मैंने गौर किया....
‘‘देव! हलवाइयों में शादी करोगे तो गुड़ गोबर हो जाओगे! ...बिल्कुल मिट्टी का तेल हो जाओगे! तुम्हारा दिमाग कुन्द हो जाएगा!‘‘ गायत्री ने भर्त्सना की।
‘‘आज ज्ञान की जो इतनी बातें करते हो, तुम्हारा सारा ज्ञान खत्म हो जाएगा!‘‘ जैसे गायत्री ने चेताया। आज गायत्री मैदान में उतरे किसी बैट्समैन की तरह बिल्कुल फुलफार्म में थी। मैंने नोटिस किया....
‘‘मुझे तुमपे गुस्से नहीं, बल्कि तरस आ रहा है कि तुमने एक बेवकूफ लड़की से प्यार किया है!‘‘ गायत्री ने अफसोस जताते हुए कहा।
अंततः ड्रामा खत्म हुआ और गायत्री ने देव को पूरी बताई।
गंगा के प्यार में पड़कर जब देव क्लास में सुबह से शाम तक दुखी-दुखी सा रहने लगा, तो गायत्री ने देव की मदद करनी की सोची।
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