उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘गायत्री! अगर देव को कुछ हो गया तो मैं जीते जी मर जाऊँगी!‘‘ कहते-कहते सावित्री की आँखों में आँसू आ गये। उसका गला रुंध गया।
सावित्री ने अपनी साड़ी जिसमें लाल और पीले रंग के गोल फूल बने थे अपने आँसू पोंछे और किसी प्रकार खुद को सम्भाला।
‘‘बेटी! तू ही इस लड़के को समझा!‘‘ जैसे सावित्री ने गायत्री को आदेश दिया।
‘‘जी! आँन्टी!‘‘ गायत्री बोली।
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‘‘देव! ....ऐ देव! गायत्री का फोन है! जल्दी आ!‘‘ सावित्री ने जोर से आवाज दी।
दूसरी ओर गायत्री ने स्वयं को तैयार किया। उसने एक लम्बी साँस ली।
देव गंगा के प्रेम वियोग में बिल्कुल मरियल सा हो गया था। अब देव ज्यादा तर अपने कमरे मे अपने बिस्तर पर ही लेटा रहता था। देखने में लगता था कि अब मरा कि कब मरा। इसी तरह देव अब अपने दिन, हफते और महीने गुजार रहा था। मैंने देखा....
देव गंगा से सच्चा प्यार करता था ....इसलिए उसे बहुत चोट पहुँची थी। गायत्री का नाम सुनकर उसमें अचानक जान सी आ गई। कई दिनों बाद उसे अच्छा महसूस हो रहा था।
‘‘हैलो!‘‘ देव बोला।
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