उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
‘‘देव!....इस तरह तो आप पागल हो जाऐंगे!‘‘ जैसे गायत्री ने देव की स्थिति सही-सही समझ ली।
‘‘दिमागी सन्तुलन बिगड़ जाएगा आपका! घर पर रह-रह कर तो और भी मानसिक हालत बिगड़ जाएगी!‘‘ जैसी गायत्री को देव की चिन्ता सी होने लगी।
‘‘गायत्री! हमें दुनिया में गंगा के सिवा कुछ नहीं चाहिए!‘‘ देव बोला एक बार फिर से।
‘‘फिर वही गंगा गंगा की रट?‘‘ गायत्री को गुस्सा आ गया।
‘‘वो लड़की आपके लायक नहीं है!‘‘
‘‘बहुत बचपना है उसके अन्दर... आपने देखा नहीं?
‘‘हमने हजार बार आपसे ये बात कही है.... क्या आपको ये दिखाई नहीं देता?‘‘ गायत्री ने पूछा।
‘‘देव! आपको सोच समझकर प्यार करना चाहिए था... अपने बराबर की समझदार और बौद्धिक स्तर वाली लड़की से!‘‘ गायत्री ने अफसोस जताते हुए कहा।
‘‘पर गायत्री प्यार तो प्यार होता है!‘‘
‘‘ये पढ़ाई-लिखाई, अमीरी-गरीबी, जात-बिरादरी देखकर तो नहीं होता!‘‘ देव बोला।
‘‘हाँ! हाँ! सही है! सही है! प्यार तो प्यार होता है!‘‘ गायत्री का गुस्सा खत्म हो गया। अब वो हँस पड़ी...
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