उपन्यास >> गंगा और देव गंगा और देवआशीष कुमार
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आज…. प्रेम किया है हमने….
शाम के छह बजे।
ललितपुर।
गायत्री का घर।
देव गायत्री के घर पहुँचा। मैंने पाया। ये एक बड़ा फंक्शन था। चार-पाँच सौ लोग आये थे। जहाँ गायत्री मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्ध रखती थी। पर उसके घर के सारे सदस्य पढ़े-लिखे थे, बिल्कुल देव के परिवार की तरह। वहीं गंगा निम्नवर्ग से सम्बन्ध रखती थी और गंगा को छोड़ अन्य अनपढ़ थे। मैंने तुलना की...
देव ने अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेरी। सभी से अच्छी तरह बात की। सभी को सिर झुकाकर नमस्कार किया, बड़ों के पैर छुए। पर ये मुस्कान, ये सुन्दर व्यवहार नकली और अवास्तविक था। देव ने अपने दर्द को बड़े नाटकीय रूप से छिपा लिया था। सिर्फ गायत्री ही ये बात जानती थी। मैंने पाया....
‘गायत्री! तुम्हारे पापा कहाँ हैं?’ देव ने पूछा जब उन्हें अनुपस्थ्ति पाया।
हँसती, खिलखिलाती, अच्छे मूड में होने वाली गायत्री अचानक से थोड़ी उदास सी हो गई। मैंने गौर किया...
‘ ...पापा ने जो आज के लिए छुट्टी की एप्लीकेशन दी थी वो सैंक्शन नहीं हो पायी! दूसरी शिफ्ट में जो डाइवर ट्रेन चलाता था वो अचानक से बीमार पड़ गया और पापा को आज भी डयूटी पर जाना पड़ गया!’ गायत्री बोली मुँह फुलाते हुए।
गायत्री के पापा ट्रेन डाइवर थे। वे गोशाला से लोकल ट्रेन को चलाकर लखनऊ और गोरखपुर तक ले जाते थे। पर इस ट्रेन डाइवर वाली नौकरी के कई साइड-इफेक्ट भी थे। धड़-धड़ कर कान का पर्दा फाड़ने वाले इंजन के शोर के कारण वे उँचा सुनने लगे थे। इतना ही नहीं कोयले से चलने वाले इंजन के काले धुँऐ के कारण उन्हें अक्सर सीने में दर्द की शिकायत रहती थी। पर रेलवे का अपना अस्पताल था जिसमें सारा इलाज मुफ्त में होता था। यह गनीमत थी। गायत्री ने पूरी बात बतायी।
‘....तो इसलिए कहती हूँ देव! कुछ भी बनना पर ट्रेन डाइवर नहीं!’ गायत्री बोली।
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